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1. वस्तु का यथार्थ लक्षण नहीं समझ पाने पर उसकी यथार्थ पहिचान सम्भव नहीं है। पहिचान के बिना परीक्षा करना सम्भव नहीं हो पाने से, उसका निर्णय कर पाना शक्य नहीं है । निर्णय किए बिना अपने लिए उसकी उपयोगिता-अनुपयोगिता ज्ञात नहीं हो पाने से उसे उपादेय या हेय कर पाना भी सम्भव नहीं है; अतः लक्षण का ज्ञान करना आवश्यक है।
2. सुखी होने के लिए देव, शास्त्र, गुरु, जीव आदि सात तत्त्व आदि प्रयोजनभूत तत्त्व का यथार्थ स्वरूप उनके लक्षण के माध्यम से ही ज्ञात होता है; अतः लक्षण जानना अति आवश्यक है। ____ 3. अपना यथार्थ लक्षण ज्ञात नहीं होने से हम स्वयं को अनादि से काले, गोरे, मोटे, पतले, तिर्यंच, मनुष्य आदि शरीररूप या धन, कुटुम्ब आदि रूप मानते आ रहे हैं। इस विपरीत मान्यता के कारण चार गति, चौरासी लाख योनिओं में
परिभ्रमण करते हुए अनन्त दुःख भोग रहे हैं। लक्षण और लक्षणाभास का यह । प्रकरण समझ में आ जाने से यह ज्ञात होता है कि स्वयं को इन रूप मानना तो
असंभव लक्षणाभास है; मैं कभी भी इन रूप हुआ नहीं, हूँ नहीं और हो भी नहीं सकूँगा - इस समझ के बल पर इन्हें अपना मानना छोड़कर, जब हम अपने ज्ञानानन्द स्वभावी भगवान आत्मा को अपनत्वरूप से जानकर, मानकर उसमें लीन होते हैं, तो मिथ्यात्व नष्ट होकर जीवन सम्यकरत्नत्रय सम्पन्न, अतीन्द्रिय आनन्दमय हो जाता है।
4. वास्तव में कोई भी पर्याय अनादि-अनन्त नहीं होने से पर्याय को अपना लक्षण बनाना/पर्याय से अपनी पहिचान करना, अव्याप्ति लक्षणाभास है - यह समझ में आ जाने से विकारी-अविकारी सभी प्रकार की पर्यायों का आकर्षण नष्ट हो जाता है; जिससे पर्यायदृष्टि/पर्याय मूढ़ता नष्ट होकर द्रव्यदृष्टि प्रगट होती है; जो स्वयं सुख
शान्तिमय परिणमन है। .. 5. इसी आधार पर अन्य को भी पर्यायरूप से देखने का भाव नष्ट हो जाता है; जिससे व्यर्थ के राग, द्वेष, मान, अपमान, विषय-भोग आदि संबंधी भाव नष्ट होकर जीवन सहज समतामय हो जाता है।
6. जो विशेषताएं अपने में तथा अन्य में समान हैं, उनसे अपनी या अन्य की पहिचान करना, अतिव्याप्ति लक्षणाभास है अर्थात् सामान्य/साधारण और
लक्षण और लक्षणाभास /46