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________________ ... स्वर्ग (स्वरूप की अपेक्षा अन्तर) मोक्ष . 1. यह संसार दशा है। यह संसारातीत सिद्ध दशा है। 2. यह शरीर सहित, सादि-सांत दशा | यह अशरीरी, सादि-अनंतदशा है। है। 3. यहाँ इन्द्रियजन्य सुखरूप मंद | यह पूर्ण निराकुल, अतीन्द्रिय आनंदमय आकुलता है। 4. यहाँ जन्म-मरण आदि अठारह दोष | यह सभी दोषों से रहित, पूर्णतया निर्दोष 5. यहाँ तीनों प्रकार के कर्म हैं। । यहाँ किसी भी प्रकार का कर्म नहीं है। ये निष्कर्म हैं। 6. ये कृतकृत्य नहीं हैं। ये पूर्ण कृतकृत्य हैं। 7. इनमें गति, शरीर, परिग्रह, ज्ञान, | यहाँ आत्मप्रदेशों की अवगाहना/आकार कषाय आदि की अपेक्षा अत्यधिक प्रकार की असमानता के अतिरिक्त .. असमानताएं हैं। अन्य कोई भी असमानता नहीं है। 8. ये विराधक या साधक ही होते हैं। | ये साध्य दशा सम्पन्न हैं। 9. यहाँ एक से चार गुणस्थान ही | ये गुणस्थानातीत हैं। होते हैं। 10. ये अचल नहीं हैं, मरणकर या शरीर | ये पूर्णतया अचलं हैं। सहित भी अन्यत्र जा सकते हैं। 11. आत्मा का स्वभाव इनके समान | आत्मा का स्वभाव इनके समान ही है। नहीं है। 12. यहाँ अनेक जीवों की अपेक्षा पाँचों | यहाँ मात्र क्षायिक और पारिणामिक - भाव हैं। ये दो भाव ही हैं। इत्यादि अनेक प्रकार से स्वरूप की अपेक्षा भी इन दोनों में अन्तर है।. पुण्य-पाप का श्रद्धान होने पर पुण्य को मोक्षमार्ग न माने या स्वच्छन्दी होकर पापरूप न प्रवर्ते, इसलिए मोक्षमार्ग में इनका श्रद्धान भी उपकारी जानकर दो तत्त्व विशेष के विशेष | मिलाकर नवपदार्थकहे। -मोक्षमार्गप्रकाशक,नौवाँ अधिकार, पृष्ठ-३१७ तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /35
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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