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कारण, बंधमय होने से तथा कर्मकृत परिणाम होने के कारण हेय ही मानते हैं, उसे मोक्षमार्ग नहीं मानते हैं।
वीतरागतारूप वास्तविक चारित्र के निमित्त या सहचारी होने से यद्यपि जिनवाणी में भी महाव्रत आदि शुभभावों को उपचार से चारित्र कहा गया है; तथापि वे वास्तव में तो मंद कषायरूप परिणाम होने से आस्रव, बंधरूप ही हैं, चारित्ररूप संवर नहीं हैं। चारित्ररूप संवर तो एकमात्र निःकषाय भावरूप वीतरागता/ स्वरूप-लीनता ही है। यह इसे नहीं पहिचानता है; यही इसकी चारित्र संबंधी विपरीत मान्यता है। ___ इसप्रकार निचली भूमिका में व्यक्त वीतरागता के निमित्त या सहचारी होने से, आस्रव-बंधरूप जिन शुभभावों को उपचार से संवर कहा गया था; यह शास्त्रअभ्यासी उन्हें ही वास्तविक संवर मान लेता है; वीतरागतारूप वास्तविक संवर को नहीं पहिचानता है - यह इसकी संवर तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है ।
प्रश्न 7: निर्जरा तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः अपने ज्ञानानंद स्वभावी भगवान आत्मा को अपनत्वरूप से जानकर, पहिचानकर, उसमें ही स्थिरता से जो वीतरागता की वृद्धि होती है, क्रमशः अशुद्धि नष्ट होती जाती है, तदनुसार ही शुद्धि बढ़ती जाती है तथा इसका निमित्त पाकर पूर्वबद्ध कर्म भी क्रमशः खिरते जाते हैं - इस स्थिति को निर्जरा कहते हैं। अनंतवैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में संतुष्टि/तृप्ति के बल पर परपदार्थों संबंधी इच्छाओं का निरोधरूप तप इस निर्जरा का मुख्य कारण है। इस तप के अनशन
आदि बारह भेद हैं। निचली दशा में उन सभी में वीतरागता और सरागता रूप मिश्रभाव विद्यमान रहता है। तदनुसार तप के उन सभी भेदों में अंतरंग और बहिरंग क्रियाएं भी होती हैं। यह शास्त्राभ्यासी जिनवाणी से उनकी बहिरंग क्रियाओं को जानकर उन्हें तो तप मानने लगता है; परंतु वीतरागतारूप अंतरंगतप की पहिचान नहीं कर पाता है। यही कारण है कि यह अनशन आदि रूप शुभभाव या शुभ क्रिया आदि को ही निर्जरा का कारण मानता है - यह इसकी निर्जरा तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है।
भोजन-पान आदि के त्यागरूप बाह्य अनशन आदि को तो बाह्य में दिखाई देने के कारण बाह्य तप कहा जाता है; परंतु वास्तव में इस बाह्य क्रिया का कुछ
सात तत्त्वों सम्बन्धी भूल /30