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________________ भी फल जीव को नहीं मिलता है, उसे तो अपने अंतरंग परिणामों का ही फल मिलता . है । अनशन आदि और प्रायश्चित्त आदि को तप कहने का कारण तो यह है कि अनशन आदि बाह्य साधन पूर्वक प्रायश्चित्त आदि रूप प्रवर्तन करके वीतराग भावरूप सत्य तप का पोषण किया जाता है। यह वीतरागभाव स्वयं निर्जरारूप है - इसकी पहिचान नहीं होना ही निर्जरा तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है । निचली भूमिका में ज्ञानीजन भी यद्यपि इन तपों रूप प्रवृत्ति करते हैं; तथापि उनके उपवास आदि की इच्छा नहीं है । वे तो एकमात्र स्वरूपलीन रहना चाहते हैं, शुद्धोपयोग चाहते हैं । यदि उपवास आदि करने से शुद्धोपयोग बढ़ता है तो उपवास आदि करते हैं और यदि उपवास आदि से शरीर या परिणामों की शिथिलता के कारण शुद्धोपयोग शिथिल होता है तो आहार आदि ग्रहण करते हैं; पर तप तो अंतरंग परिणामों की शुद्धता को ही मानते हैं, उससे ही निर्जरा होती है। इसे नहीं पहिचाननेवाले के निर्जरा तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता विद्यमान है । अनशन आदि रूप और प्रायश्चित्त आदि रूप बाह्य प्रवृत्ति होने पर अंतरंग परिणामों की शुद्धता होने के कारण उन बाह्य प्रवृत्तिओं को भी उपचार से तप/ निर्जरा का कारण कहा जाता है; तथापि उन्हें ही वास्तव में तप / निर्जरा का कारण मान लेना निर्जरा तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है । प्रश्न 8ः 'मोक्षतत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता को स्पष्ट कीजिए । उत्तरः समस्त परपदार्थों, विकारीभावों, भेदभावों से रहित; अनंतवैभव सम्पन्न अपने ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मा का पर्याय में पूर्ण प्रगट हो जाना मोक्ष है। मोक्ष के इस वास्तविक स्वरूप को नहीं पहिचानने से यह अज्ञानी जीव ऐसा मानता है कि - - 1. जन्म-मरण-रोग-क्लेश आदि दुःख दूर होना, अनंतज्ञान द्वारा लोकालोक की जानकारी हो जाना, त्रिलोक पूज्यपना हो जाना मोक्ष है । यद्यपि स्वात्मा की परिपूर्ण अभिव्यक्ति हो जाने से मोक्ष में ये सभी विशेषताएं भी होती हैं; पर वास्तव में ये सभी मोक्ष दशा नहीं, मोक्षदशा के प्रतिफल हैं, उसे पहिचानने के स्थूल चिंह हैं । यह शास्त्र स्वाध्यायी जीव अन्य भोले जीवों के समान इन विशेषणों से ही मोक्ष की महिमा मानता है - यह इसकी मोक्ष तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है । 2. यह जीव स्वर्ग-सुख और मोक्ष सुख की जाति भी समान मानता है । इसका ऐसा अभिप्राय है कि स्वर्ग में जितना सुख है, उससे अनंतगुणा अधिक सुख मोक्ष तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 31
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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