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परिषहजय – यह शास्त्र-अभ्यासी भूख-प्यास आदि कप्ट होने पर, उन्हें नष्ट करने के उपाय नहीं करने को परिषहजय मानता है; परंतु भले ही इन्हें नष्ट करने का उपाय नहीं किया, पर ये परिस्थितिआँ अनिष्ट हैं, दुःखदायी हैं ऐसी मान्यता तो वनी ही रही तथा भूख आदि से दुखी भी होता रहा है; तब यह परिषह सहना कहाँ हुआ? यह तो अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान हुआ; इसीप्रकार प्रीति आदि की कारणभूत अनुकूल परिस्थितिआँ बनने पर सुखी होना तो परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान है, परिषहजय/संवर नहीं है। मैं अपने से पृथक् सम्पूर्ण परपदार्थों से पूर्णतया पृथक् हूँ। मेरे सुख-दुःख इन सभी से पूर्णतया निरपेक्ष मेरे परिणामों के ही आश्रित हैं। जगत का अन्य कोई भी पर पदार्थ रंचमात्र भी सुख-दुःख का कारण नहीं है। – वस्तु के इस वास्तविक स्वरूप का निर्णयकर, यथार्थ स्व-पर भेदविज्ञानकर, दुःख के कारण मिलने पर भी दुखी नहीं होते हुए तथा सुख के कारण मिलने पर भी सुखी नहीं होते हुए, समस्त परपदार्थ रूप ज्ञेयों के प्रति मात्र सहज ज्ञाता-दृष्टारूप बने रहना, सहज समताभाव रखना परिषहजय है। यह परिषहजय का ऐसा स्वरूप नहीं समझ पाता है, यह इसकी परिषहजय संबंधी विपरीत मान्यता है । __ चारित्र - यह जिनवाणी का स्वाध्याय करनेवाला जीव हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि रूप सावद्ययोग/पापक्रियाओं के त्याग को चारित्र मानता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रम्हचर्य और अपरिग्रहरूप महाव्रतादिमय शुभयोग को उपादेय मानता है, चारित्र मानता है; परंतु तत्त्वार्थसूत्र आदि जिनवाणी में अणुव्रतमहाव्रत को शुभास्रव कहा है; ये मंद कषायरूप परिणाम पराश्रित हैं, बंध के कारण तथा बंधमय हैं; चारित्र तो इससे विरुद्ध निष्कषायमय, स्वाधीन, मोक्ष का कारण तथा मोक्षमय है; तब फिर पाप आदि के त्यागरूप, शुभभावमय व्रत आदि चारित्र कैसे हो सकते हैं? ___ यद्यपि मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी आदि तीन चौकड़ी कषाय के अभाव में व्यक्त हुई उदासीनता-भावरूप वीतरागता सम्पन्न मुनिराज के संज्वलन आदि कषायों के उदय में अट्ठाईस मूलगुण आदि के पालनरूप प्रशस्तराग प्रगट होता है; पूर्ण स्वरूपलीन रहने में समर्थ नहीं होने के कारण वे इसमें प्रवृत्त भी होते हैं; तथापि वे इसे चारित्र का मल/दोष ही जानते हैं, हिंसा आदि तीव्र कषायरूप परिणामों से बचने के लिए मजबूरीवश अपनाया गया उपाय मानते हैं; बंध का
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /29