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________________ विचारकर पाप बंध आदि के भय से और स्वर्ग-मोक्ष की इच्छा से क्रोधादि नहीं करने को धर्म मानता है; पर वास्तव में इसके क्रोधादि नष्ट नहीं हुए हैं, अंदर तो विद्यमान हैं; मात्र बाहर व्यक्त नहीं हुए हैं; परंतु फल तो अंतरंग परिणामों का मिलता है, बाह्य शरीर आदि की क्रिया का नहीं मिलता है; अतः मात्र बाहर में क्रोधादि व्यक्त नहीं होने से कोई धर्मात्मा नहीं हो जाता है; अंतरंग में क्रोधादि करने का अभिप्राय नष्ट होने पर धर्मात्मा होता है। वास्तव में तो पदार्थ इष्ट-अनिष्ट लगने से क्रोधादि होते हैं । वस्तु का वास्तविक स्वरूप समझने से, स्व-पर का यथार्थ भेदविज्ञान हो जाने से जब कोई भी पदार्थ इष्ट या अनिष्ट नहीं लगता है; तब स्वयमेव क्रोधादि उत्पन्न ही नहीं होते हैं; उत्तमक्षमा आदि हो जाते हैं, जीवन सम्यक्रत्नत्रय सम्पन्न अहिंसक धर्ममय हो जाता है । इस शास्त्राभ्यासी को इसकी पहिचान नहीं है । यह इसकी धर्म के संबंध में विपरीत मान्यता है । अनुप्रेक्षा - शरीर आदि बाह्य संयोग अनित्य हैं, अशरण हैं, दुःखदायी हैं, मलिन हैं इत्यादि रूप में शरीर आदि संयोगों का स्वभाव जानकर, उनसे उदास होने को अनुप्रेक्षा मानता है; परंतु यह वास्तविक अनुप्रेक्षा नहीं है, वरन् उनके प्रति द्वेषभाव है। शास्त्र अभ्यास आदि से पूर्व इन संयोगों को स्थायी, शरणभूत, सुखमय / सुखदायक, अच्छे समझकर उनमें राग करता था और अब शास्त्र अभ्यास करके उन्हें अनित्य आदि रूप समझकर उनमें द्वेष करने लगा । यहाँ वीतरागभाव कहाँ रहा? यदि शरीर आदि संयोग अनित्य आदि रूप नहीं होते तो क्या उनके प्रति उदासीन नहीं होता? यदि परिवार - कुटुम्बीजन स्वार्थ के सगे नहीं होते, निःस्वार्थ भाव से सेवा-शुश्रूषा करते तो क्या उनके प्रति उदासीन नहीं होता? इससे लगता है कि इसकी उदासीनता द्वेषपरक है, वीतरागतापरक नहीं है। अपने और शरीर आदि संयोगों के वास्तविक स्वभाव को पहिचानकर, उन्हें अपने से पूर्णतया भिन्न जानकर, पर पदार्थों को अपना या भला-बुरा माननेरूप भ्रम को मिटाकर, उनकी अपने अनुकूल प्रवृत्ति होने पर भी उनके प्रति राग नहीं करना तथा उनकी अपने प्रतिकूल प्रवृत्ति होने पर भी द्वेष नहीं करना, उन्हें अपने से पूर्णतया पृथक मानकर उनके प्रति उदासीन भाव बढ़ाने के लिए अनित्यता आदि का चिंतन करना वास्तविक अनुप्रेक्षा है । इसे इसकी पहिचान नहीं है, यही इसकी अनुप्रेक्षा के संबंध में विपरीत मान्यता है । सात तत्त्वों सम्बन्धी भूल / 28
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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