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________________ प्रवृत्ति स्वयमेव रुक जाना/योगों का भली-भाँति निग्रह हो जाना, वास्तविक गुप्ति है। इसकी पहिचान नहीं होने के कारण यह मन-वचन-काय की प्रशस्त प्रवृत्ति को गुप्ति मान लेता है - यह इसकी गुप्ति के संदर्भ में विपरीत मान्यता है। ___समिति - गमन आदि क्रिया करते समय अन्य जीवों की रक्षा के लिए होनेवाली यत्नाचार रूप प्रवृत्ति को यह जीव समिति मान लेता है; परंतु यह इतना विचार नहीं कर पाता है कि अन्य को मारने आदि के भाव से पाप बंध होता है और रक्षा का भाव समिति रूप संवरमय धर्म है तो पुण्य बंध किससे होगा? दूसरी बात यह है कि समिति के तो पाँच भेद जिनवाणी में बताए गए हैं। इनमें से चार हाथ आगे की भूमि देखकर चलनेरूप ईर्या समिति में, हित-मित-प्रिय वचन बोलनेरूप भाषा समिति में, पीछी-कमण्डलु-शास्त्र आदि उपकरण देख-शोधकर उठाने-रखनेरूप आदान-निक्षेपण समिति में और निर्जन्तुक भूमि देखकर मल-मूत्र आदि क्षेपण करनेरूप उत्सर्ग/प्रतिष्ठापना समिति में तो प्रवृत्ति जीव रक्षा के लिए है; परन्तु छ्यालीस दोष, बत्तीस अन्तराय टालकर आहार लेनेरूप एषणा समिति में प्रवृत्ति तो जीवरक्षा के लिए नहीं होती है; एकमात्र निरीह वृत्ति और शरीर के प्रति निर्ममत्व की मुख्यता से भोजन का भाव समाप्त हो जाने के कारण होती है; तब फिर इसे समिति कहना कैसे संभव हो सकेगा? ____ वास्तव में तो मुनिराजों के मिथ्यात्व और तीन चौकड़ी कषाय का अभाव हो जाने से व्यक्त वीतरागता के साथ शेष रहीं संज्वलन चतुष्क आदि कषायों के उदय में गमन आदि क्रिया होने पर भी, उनमें तीव्र आसक्ति नहीं होने के कारण प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती है; अन्य जीवों को दुःखीकर अपना गमन करने आदि रूप कार्य को करने का भाव उनके नहीं होने से स्वयमेव दया पल जाती है - यह वास्तविक समिति है; अतः पर जीवों की रक्षा के लिए यत्नाचाररूप प्रवृत्ति करने को समिति मानना, समिति के संबंध में विपरीत मान्यता है। धर्म – पर पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट मानकर, इच्छा के विरुद्ध कार्य आदि हो जाने से उन पर क्रोधादि करने का अभिप्राय विद्यमान होने पर भी; यदि में क्रोधादि करूँगा तो सभी मुझे यहाँ बुरा कहेंगे, नरकादि रूप पाप का बंध भी होगा, जिसका उदय आने पर परभव में भी दुःख भोगना पड़ेगा तथा यदि मैंने क्रोधादि नहीं किए तो यहाँ भी सभी अच्छा कहेंगे तथा आगे भी स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति होगी' - ऐसा तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /27
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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