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________________ मजबूरीवश मंद आकुलतामय शुभभावों में रहना अच्छा है; नरकादि गतिओं में तीव्र प्रतिकूलता भोगने की अपेक्षा देवादि गतिओं में कम प्रतिकूलता भोगना अच्छा है। जिनवाणी में भी तीव्र कषाय से बचने के लिए मंद कषाय में रहने का उपदेश भी है; तथापि मजबूरी को मजबूरी नहीं मानकर; सभी कषायमय भावों को अशुद्ध, दुःखमय, हेय, बंध के कारण नहीं मानकर यदि उनमें अच्छे-बुरे का भेद किया जाता है तो यही वृत्ति बंध तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है। प्रश्न 6: संवर तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता को स्पष्ट कीजिए। उत्तरः 1. निचली भूमिका में वीतराग परिणामों का निमित्त और सहचारी होने से वीतरागता रूप संवर परिणामों के साथ रहनेवाले अहिंसा आदि रूप शुभभावों को भी उपचार से संवर या धर्म जिनागम में कहा गया है। यह शास्त्र-स्वाध्यायी जिनागम का अभिप्राय नहीं समझ पाने के कारण इन शुभभावों को ही संवर मान लेता है। वह इतना भी विचार नहीं कर पाता है कि जिन भावों से पुण्य कर्मों का बंध होता है, उन्हीं भावों से कर्मों का संवर/आस्रव का रुकना कैसे हो जाएगा? यद्यपि अंतरात्मा रूप साधक की निचली दशा में भूमिकानुसार शुभ-अशुभ और शुद्ध का मिश्रण चारित्र गुण की पर्याय में पाया जाता है; तथापि उसमें भी उस शुभ-अशुभ भाव रूप अंश से कर्मों का आस्रव-बंध ही होता है; संवर तो उस शुद्ध भावरूप अंश से ही है, अशुद्ध भाव से नहीं है। यह तथ्य समझ में नहीं आने के कारण शुभभाव में संवर के भ्रम से यह उन प्रशस्तराग रूप शुभभावों/क्रियाओं को उपादेय मानता है - यह इसकी संवर तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है। 2. जिनवाणी में गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय, चारित्र आदि संवर के अनेक कारण कहे हैं। यह उनकी भी यथार्थ श्रद्धा नहीं करता है। जैसे - गुप्ति - मन में पाप-चिंतन नहीं करके मन की चेष्टा मिटाकर, मौन धारण कर वचन की चेष्टा मिटाकर तथा हलन-चलन आदि नहीं कर काय की चेष्टा मिटाकर इत्यादि रूप में मन, वचन, काय की बाह्य चेष्टाएं मिटाने को गुप्ति मानता है; परंतु उस समय मन में भक्ति आदि रूप विविध प्रशस्त विचार तो चल रहे हैं, मन का निग्रह कहाँ हुआ? इसीप्रकार बुद्धिपूर्वक वचन और काय की चेष्टा रोकना तो शुभभाव और शुभ प्रवृत्ति है, इनमें वचन और काय का निग्रह कहाँ हुआ? गुप्ति पर प्रवृत्तिरूप नहीं है । स्वरूपलीनता रूप वीतरागभाव होने पर मन-वचन-काय की सात तत्त्वों सम्बन्धी भूल /26
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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