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________________ जिनवाणी का स्वाध्याय नहीं करनेवाले जीवों के समान दुःख की निमित्तभूत सामग्री को दुःखमय मानकर उससे द्वेष करने लगता है तथा सुख की निमित्तभूत सामग्री को सुखमय मानकर उससे राग करने लगता है। जैसे वर्तमान पर्याय संबंधी सुख-दुःख सामग्री में राग-द्वेष करता है; उसीप्रकार आगामी पर्याय संबंधी सुखदुःख सामग्री में राग-द्वेष करता है तथा उसके कारणभूत पुण्य-पाप कर्म के बंध को भला-बुरा मानता है। वास्तव में कोई भी सामग्री सुख-दुःख की कारण नहीं होने से, उस सामग्री की प्राप्ति में निमित्त होनेवाले पुण्य-पापरूप कर्म के बंध भले-बुरे नहीं हैं; वरन् बंधमय होने से सभी बुरे/हेय ही हैं; इनमें भले-बुरे का भेद करना ही बंध तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है। दूसरी बात यह भी है कि शुभ-अशुभ भावों से पुण्य-पाप का भेद तो मात्र अघाति कर्मों में होता है; परंतु वे आत्मगुण के घातक नहीं हैं। आत्मगुण के घातक, पूर्णतया पापमय घातिकर्म तो शुभ-अशुभ सभी भावों से सतत बँधते रहते हैं; अतः पुण्यवंध को अच्छा मानने का अर्थ है उसके साथ ही नियम से बँधनेवाले पापमय घातिकर्मों को अच्छा मानना । यही बंध तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है। इसमें एक बात यह भी है कि देव, मनुष्य और तिर्यंच आयुष्क को छोड़कर शेष सभी पुण्य-पाप प्रकृतिओं का स्थिति बंध पापरूप ही है। पुण्य-पाप का भेद तो अनुभाग आदि की अपेक्षा है। संसार का मूल कारण स्थितिबंध है; अतः पापमय स्थितिबंध के कारणभूत शुभ भावों को अशुभ भावों के समान बुरा नहीं मानना, बंध तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है। ____वस्तु स्थिति तो यह है कि शुभ-अशुभ दोनों ही परिणामों से सतत बँधते रहनेवाले अनुजीविगुणों के घातक तथा पूर्णतया पापमय ही घातिकर्म वे कर्म हैं, जिनके नष्ट हुए बिना अघातिकर्म का तीव्र पुण्योदय भी जीव को सुखी नहीं कर सकता है । यही कारण है कि घातिकर्म का उदय रहते अघातिकर्म का कैसा भी उदय कुछ भी महत्त्व नहीं रखता है; परंतु यदि स्वरूपलीनता के बल पर घातिकर्म नष्ट हो जाते हैं तो अघातिकर्म की विद्यमानता में भी जीव अनन्त चतुष्टय सम्पन्न अरहंत परमात्मा हो जाता है; अतः जिन परिणामों से घातिकर्म भी बँधते हैं, उन परिणामों से बँधनेवाले पुण्य कर्म को अच्छा मानना, बंध तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है। __ यद्यपि पूर्ण स्वरूपलीन नहीं रह पाने पर तीव्र आकुलता से बचने के लिए तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /25
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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