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________________ को मनोयोग, वाणी द्वारा वचन बोलने को वचनयोग तथा शरीर की हलन-चलनरूप चेष्टाओं को काययोग मानता है; परंतु ये क्रियाएं मैं करूँ या नहीं करूँ - ऐसे भाव पूर्वक होनेवाले आत्म-प्रदेशों के कम्पनरूप शक्तिभूत योग को नहीं पहिचानता। यह इसकी योग संबंधी विपरीत मान्यता है। 4. वास्तव में अंतरंग अभिप्राय में स्थित मिथ्यात्व आदि रूप रागादिभाव ही मूल आस्रवभाव हैं। त्रिकाल ज्ञानानंदस्वभावी अपने भगवान आत्मा को अपनत्वरूप से स्वीकार नहीं करना मिथ्यादर्शन है। अपनी पर्याय में किसी भी प्रकार का परलक्षी भाव होना हिंसा है; स्वयं अनंतवैभव सम्पन्न परमप्रभु परमात्मा होने पर भी स्वयं को दीन-हीन पामर मानकर प्रवृत्ति करना असत्य है; परपदार्थों को अपने अधिकार में रखने का भाव या पुण्य-पाप परिणामों पर अपना अधिकार जमाने का भाव चोरी है; त्रैकालिक ध्रुव स्वभाव को विस्मृत कर पर्यायमात्र में रमण करना कुशील है तथा पर्याय मात्र में ममत्वकर, उसे सुरक्षित रखने की भावना परिग्रह है; इन पाँचों पापों से विरत नहीं होना अविरति है । स्वभाव से खींचकर निकालकर पर में उलझानेवाले सभी भाव कषाय हैं; इत्यादि रूप में स्थित आस्रवों/भावात्रवों को तो पहिचानता नहीं है और इनका निमित्त पाकर आनेवाले कर्मों को/द्रव्यास्त्रवों को ही आस्रव मानता है। इसीप्रकार कुदेवादि के सेवन आदि रूप बाह्य प्रवृत्तिओं को तो मिथ्यादर्शन आदि मानता है; परंतु उपर्युक्त अंतरंग मिथ्यादर्शन आदि को नहीं पहिचानता है। यही कारण है कि इन वास्तविक मिथ्यादर्शन आदि को तो नष्ट करने का उपाय नहीं करता है, कुदेवादि सेवन रूप बाह्य प्रवृत्तिमय मिथ्यात्वादि को छोड़ने मात्र से ही सम्यक्त्वी बनने का प्रयास किया करता है। यही इसकी आस्रव तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है। प्रश्न 5: बंध तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता को स्पष्ट कीजिए। उत्तरः इस शास्त्र-स्वाध्यायी जीव ने जिनवाणी पढ़कर नरक आदि गति संबंधी लौकिक प्रतिकूलताएं जानकर उन्हें बुरा मान लिया है तथा देव आदि गति संबंधी लौकिक अनुकूलताएं जानकर उन्हें अच्छा मान लिया है। हिंसा आदि . अशुभ भावों से पाप का बंध होता है, जिसके फल में नरकादि गतिओं रूप दुःख की सामग्री मिलती है तथा अहिंसा आदि शुभभावों से पुण्य का बंध होता है, जिसके फल में देवादि गतिओं रूप सुख की सामग्री मिलती है। ऐसा जानकर यह सात तत्त्वों सम्बन्धी भूल /24
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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