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________________ मानकर छोड़ने का भी प्रयास करता है; परंतु शरीर आदि पर पदार्थ मैं हूँ, मेरे हैं; मैं इनका कर्ता-भोक्ता हूँ; मैं काला-गोरा, मोटा-पतला आदि रूप हूँ इत्यादि अनादिकाल से चली आई विपरीत मान्यताओं को मिथ्यादर्शन नहीं मानता है । यही कारण है कि यह अगृहीत मिथ्यादर्शन इसे आस्रव नहीं लगता है; अतः बुरा मानकर छोड़ने का प्रयास भी नहीं करता है। यह मिथ्यादर्शन संबंधी भूल है। - ब. अविरति - पाँच स्थावर और त्रसरूप षट्कायिक जीवों की हिंसा आदि रूप प्राणी असंयम को तथा पाँच इन्द्रिय और मन के विषयों में प्रवृत्तिरूप इन्द्रिय असंयम को तो अविरति मानता है। इन्हें बुरा जानकर, इनसे बचने का प्रयास भी करता है; परंतु एक भी जीव की हिंसा नहीं होने पर भी हिंसा आदि प्राणी असंयम में प्रमाद परिणति मूल है/अयलाचार प्रवर्तन मुख्य है/असावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने का भाव प्राणी संबंधी असंयम है - ऐसा नहीं मानता है। इसीप्रकार विषयों में प्रवृत्तिरूप इन्द्रिय असंयम में अभिलाषा मूल है; किसी भी इन्द्रिय संबंधी विषयभोग में प्रवृत्ति नहीं होने पर भी, उस विषय की इच्छा इन्द्रिय असंयम है – ऐसा नहीं मानता है। यही कारण है कि असावधानीरूप प्रवर्तन का भाव तथा भोगों की इच्छाएं बुरी नहीं लगने के कारण भेदविज्ञान पूर्वक तत्त्वाभ्यास करके उन्हें नष्ट करने की दिशा में प्रयास भी नहीं करता है। यह इसकी अविरति संबंधी विपरीत मान्यता है। स. कषाय - इसीप्रकार किसी प्रतिकूल प्रसंग आदि का निमित्त पाकर क्रोध आ जाना, किसी सफलता में घमंड हो जाना, कोई कार्य सीधे होता हुआ न जानकर छलपूर्वक करने का भाव आ जाना, अधिकाधिक पदार्थों को संग्रह करने का भाव रहना इत्यादि रूप में व्यक्त होनेवाली बाह्य क्रोधादि कषायों को तो कषाय मानता है। उन्हें बुरा मानकर नष्ट करने की दिशा में भी प्रयास करता है; परंतु अंदर जो राग-द्वेष चलते रहते हैं, प्रीति-अप्रीतिरूप भाव चलते रहते हैं, स्वरूप-लीनता न होकर परलक्षी परिणाम चलता रहता है - यह वास्तविक कषाय है; इसकी इसे पहिचान नहीं है। यही कारण है कि उसे बुरा मानकर, नष्ट करने की दिशा में प्रयास भी नहीं करता है। यह इसकी कषाय संबंधी विपरीत मान्यता है । द. योग - मन, वचन, काय की बाह्य चेष्टाओं/प्रवृत्तिओं को तो योग मानता है। उन्हें आस्रव मानकर, नष्ट करने का प्रयास भी करता है; परंतु अंदर प्रति समय चलनेवाले शक्तिभूत योगों को नहीं पहिचान पाता है। मन से पाप आदि के चिंतन तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /23
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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