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प्रश्न 4: आस्रव तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः 1. जैन शास्त्रों को पढ़कर आस्रव के पुण्य-पाप रूप दो भेद समझ लेने से तथा पुण्य की भूमिका में निचली भूमिकावाली शुद्धता सुरक्षित रहती होने के कारण उसे कथंचित् उपादेय तथा धर्म कहा गया होने से यह मिथ्यादृष्टि जीव हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि रूप पाप परिणामों को हेय तथा अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रम्हचर्य, अपरिग्रह आदि रूप पुण्य परिणामों को उपादेय मान लेता है; - यह इसकी आस्रव तत्त्व के संबंध में विपरीत मान्यता है; क्योंकि पुण्य हो या पाप – दोनों ही परलक्षी, पराधीन परिणाम हैं; पर की स्वतंत्र, परिपूर्ण, अनंतवैभव सम्पन्न सत्ता को अस्वीकार कर, उसे अपने अधीन मानकर, उसमें हस्तक्षेप करने के भाव हैं; आकुलतामय, आकुलता के कारण होने से, बंध के कारण हैं; अतः स्वाधीनता के इच्छुक मोक्षार्थी को पूर्णतया हेय ही हैं; एकमात्र पूर्ण स्वरूपलीनतामय निबंधदशा ही उपादेय है; परंतु यह ऐसा स्वीकार नहीं कर पाता है और अज्ञानतावश पाप को बुरा, हेय तथा पुण्य को अच्छा, उपादेय मान लेता है - यह इसकी आस्रव तत्त्व के संबंध में भूल है।
2. यद्यपि निचली भूमिका में पूर्ण स्वरूपलीन नहीं रह पाने के कारण तथा पाप पूर्णतया नहीं छूट पाने के कारण अधिकाधिक तीव्र आकुलता से/ पाप से बचने के लिए मजबूरीवश पुण्य परिणामों को बुद्धिपूर्वक भी स्वीकार करना पड़ता है;
आचार्यों ने भी स्वीकार करने का उपदेश/आदेश दिया है; तथापि मजबूरी को मजबूरी समझते हुए श्रद्धा में उसे हेय ही मानना चाहिए। दूसरों को मारने आदि के समान दूसरों की रक्षा आदि करने का भाव भी, दूसरों की स्वतंत्रता को खण्डित करनेवाला, दूसरों की अनंत वैभव सम्पन्न सत्ता में हस्तक्षेप करने रूप अपराध ही है; अतः उसे वास्तव में अच्छा/उपादेय मानना महा अपराध/मिथ्यात्व है - ऐसा मानना चाहिए। यह मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा स्वीकार नहीं करता है - यह इसकी आस्रवतत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है।
3. जिनवाणी में आस्रव के मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग - ये चार भेद कहे हैं। यह इनके बाह्य स्वरूप को तो आस्रव मानता है; पर अंतरंग वास्तविक स्वरूप की पहिचान नहीं करता है। वह इसप्रकार -
अ. मिथ्यादर्शन – यह जीव कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र आदि की सेवा-उपासनारूप गृहीत मिथ्यादर्शन को तो मिथ्यादर्शन मानता है। उसे आस्रव जानकर, बुरा
सात तत्त्वों सम्बन्धी भूल /22