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है, उपदेश आदि में वचन आदि निकलना पूर्णतया भाषा वर्गणारूप पुद्गल का परिणमन है; परंतु इसे ऐसा भाव भासित नहीं होता है। यह इसकी जीव-अजीव तत्त्व के संबंध में विपरीत मान्यता है ।
4. कभी शास्त्रानुसार उपर्युक्त प्रकार से भी चर्चा करने लगता है; परंतु आत्मा और शरीर की ऐसी चर्चा करता है जैसे अन्य की अन्य से चर्चा करता है । जैसे आत्मा और शरीर पूर्णतया पृथक्-पृथक् हैं; आत्मा ज्ञानादि सम्पन्न है, शरीर वर्णादि सम्पन्न है; आत्मा शरीर का कर्ता-धर्ता नहीं है, शरीर आत्मा का कर्ता-धर्ता नहीं है - इत्यादि रूप में भेदविज्ञान की यथार्थ चर्चा तो करता है; परंतु भाव भासित नहीं होने के कारण मैं आत्मा हूँ, मैं ज्ञानादि सम्पन्न हूँ; मैं इस वर्णादि सम्पन्न शरीरादि से पूर्णतया पृथक् हूँ, मैं इस शरीर का रंचमात्र भी कर्ता-धर्ता नहीं हूँ – इत्यादि रूप में सम्यक् श्रद्धान नहीं कर पाता है । यह इसकी जीव- अजीव तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यता है ।
5. उपर्युक्त प्रकार से भाव भासित नहीं होने के कारण, पर्याय में जीव और पुद्गल के परस्पर निमित्त से होनेवाली क्रियाओं को दोनों के मिलाप से उत्पन्न हुई मानता है। यह जीव की क्रिया है, इसमें पुद्गल निमित्त है; यह पुद्गल की क्रिया हैं, इसमें जीव निमित्त है - ऐसा भिन्न-भिन्न भाव भासित नहीं होता है । जैसे 'मैंने उपवास किया' - इसमें मैं आज भोजन आदि नहीं करूँ ऐसा राग मेरी विकृत क्रिया है, ऐसा ज्ञान मेरी स्वाभाविक क्रिया है, मेरी अपनी उपादानगत योग्यता से मुझमें ये दोनों क्रियाएं हुईं हैं; मेरी इन दोनों क्रियाओं में पुद्गल कर्म की उदय, क्षयोपशम आदि रूप तथा शरीर रूप पुद्गल की अवस्था निमित्त है; इसीप्रकार मुँह में / पेट में भोजन आदि नहीं जाना - यह पूर्णतया पुद्गल की क्रिया है; उसकी अपनी उपादानगत योग्यता से मुँह आदि में भोजन नहीं गया है; मैं आज उपवास करूँ - ऐसा मेरा राग और ज्ञान इसमें निमित्त है - ऐसा निमित्त उपादानरूप निमित्तनैमित्तिक संबंध का भाव भासित नहीं होने के कारण यह उस क्रिया को दोनों के मिलाप से हुई मान लेता है। यह इसकी जीव- अजीव तत्त्व के संबंध में विपरीत मान्यता है ।
इसप्रकार शास्त्राभ्यासी होने पर भी जीव- अजीव तत्त्व का भाव भासित नहीं होने के कारण जीव-अजीव तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यताएँ चलती रहती हैं; यथार्थ प्रतीति नहीं हो पाती है ।
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 21