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हूँ; वास्तव में मेरा इनसे कुछ भी संबंध नहीं है। ये रहें तो रहें, जाएं तो जाएं, मेरा इनसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है – इत्यादि प्रकार की भाव-भासना का अभाव होने से उनके प्रति पूर्ण निरपेक्ष भाव/वीतराग भाव पूर्वक रहने परक कथनों की पहिचान नहीं कर पाता है। यह जीव-अजीव तत्त्व के संबंध में इसकी विपरीत मान्यता है । . इसीप्रकार पुद्गल आदि सभी अजीव द्रव्य और उनके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण
आदि सभी विशेष मुझसे अत्यंत पृथक् हैं; मैं भी उनसे अत्यंत पृथक् हूँ; वे मेरे लिए इष्ट-अनिष्ट या सुखदायी-दुःखदायी नहीं हैं; वे मेरे या मैं उनका कर्ता-धर्ता-हर्ताभोक्ता आदि नहीं हूँ - इत्यादि प्रकार के भेदविज्ञान पोषक और वीतरागदशा होने में कारणभूत कथनों की पहिचान नहीं कर पाता है। यह जीव-अजीव तत्त्व के संबंध में इसकी विपरीत मान्यता है । ___2. यदि कभी अनायास, किसी परिस्थितिवश प्रवचन आदि सुनकर या पढ़कर उपर्युक्त जानकारी हो भी जाए तो जिनागम में ऐसा बताया गया है, जैनधर्म ऐसा कहता है, पंचपरमेष्ठिओं का ऐसा उपदेश है – इत्यादि रूप में उसे जान/समझ तो लेता है; परन्तु अपने को आपरूप जानकर, पर का अंश भी अपने में नहीं मिलाना तथा अपना अंश भी पर में नहीं मिलाना - ऐसा सच्चा श्रद्धान नहीं करता है। मैं अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, गुण, पर्याय आदि की अपेक्षा . पर से पूर्णतया पृथक् हूँ; पुद्गल आदि अन्य अजीव पदार्थ भी अपने इन्हीं द्रव्य, क्षेत्र आदि सभी अपेक्षाओं से पूर्णतया पृथक् हैं। मेरा उनके साथ या उनका मेरे साथ किसी भी रूप में, किसी भी प्रकार का, कुछ भी, कभी भी संबंध नहीं है। दोनों परस्पर में पूर्णतया निरपेक्ष, स्वतंत्र स्वसत्ता सम्पन्न हैं - ऐसी वास्तविक भाव-भासना नहीं कर पाता है। ... 3. यही कारण है कि यह शास्त्रानुसार सही बातों का जानकार होकर भी उपर्युक्त जानकारी से रहित, अन्य अज्ञानी मिथ्यादृष्टिओं के समान आत्माश्रित ज्ञानादि में और शरीराश्रित उपदेश-उपवासादि क्रियाओं में अपनत्व मानता है। मैं जानने-देखनेवाला तत्त्व हूँ - ऐसा भी मानता रहता है तथा मैंने उपवास किया/आहार
आदि का त्याग किया, उपदेश दिया, अन्य को पढ़ाया/समझाया - ऐसा भी मानता रहता है। जबकि जानना-देखना तो पूर्णतया जीव का परिणमन है तथा उपवास आदि कार्य/पेट में भोजन आदि नहीं जाना पूर्णतया शरीररूप पुद्गल का परिणमन
सात तत्त्वों सम्बन्धी भूल /20