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तत्त्वों संबंधी भूलें नष्ट नहीं करता है तो उसका मिथ्यात्व सुरक्षित रह जाता है। जिनागम का अध्ययन कर लेने पर भी भाव-भासना के अभाव में वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो पाता है।
जिनवाणी तो मात्र सही मार्ग बतानेवाली हैं। यदि कोई उसे पढ़कर भी सही मार्ग की पहिचान नहीं कर पाए तो इसमें जिनवाणी का क्या दोष है? उस जीव की ही अपनी अज्ञानता है। इसप्रकार जैनशास्त्र पढ़कर भी अपनी मिथ्या मान्यताओं के कारण मिथ्यात्व सुरक्षित रह जाता है।
प्रश्न 4: जीव-अजीव तत्त्व संबंधी विपरीत मान्यताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः जिनवाणी का श्रद्धान और बुद्धि के अनुसार अध्ययन आदि करनेवाला यह जीव यद्यपि जीव-अजीव आदि के भेद-प्रभेदों को सूक्ष्मता से भी जान लेता है; तथापि उन्हें जानने का यथार्थ प्रयोजन नहीं समझ पाता है। वह इसप्रकार - ____ 1. जिनवाणी का स्वाध्याय करके त्रस-स्थावर आदि द्रव्य पर्यायों/व्यंजन पर्यायों की अपेक्षा तथा गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि गुण/अर्थ पर्यायों तथा व्यंजन पर्यायों की अपेक्षा जीव के भेद-प्रभेदों को जान लेता है; अजीव के भी पुद्गल आदि जातिगत भेदों को तथा वर्ण आदि गुण-पर्याय कृत विशेषों को तो अच्छी प्रकार से समझ लेता है; परंतु जिन कथनों से स्व-पर का भेदविज्ञान हो सके, रागादि विकारी भावों का अभाव होकर वीतराग दशा हो जाए, उन्हें नहीं पहिचान पाता है। __ त्रस-स्थावर आदि, गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि पर्यायें जीव और पुद्गल की । मिली हुईं असमानजातीय द्रव्य पर्यायें हैं, क्षणिक हैं, मेरे विकारी परिणामों का, कर्मोदय आदि का निमित्त पाकर अपनी स्वतंत्र योग्यता से अपने समयानुसार उत्पन्न होती रहती हैं, नष्ट होती रहती हैं, मेरे प्रदेशों का आकार भी उस समय उनरूप हुआ लगता है; तथापि मैं इन सभी से भिन्न त्रिकाल एकरूप रहनेवाला जीव तत्त्व हूँ; इन पर्यायों के उत्पाद-विनाश से मैं उत्पन्न या नष्ट नहीं होता हूँ; यह परिवर्तित आकार भी मैं नहीं हूँ; मैं तो त्रिकाल असंख्यप्रदेशी एक आकारवाला हूँ - इत्यादि प्रकार के भेदविज्ञान परक कथनों की पहिचान नहीं कर पाता है।
इसीप्रकार मैं त्रिकाल असंयोगी, अविनश्वर हूँ तथा ये सभी पर्यायें संयोगी और क्षणिक हैं - इसप्रकार मेरे स्वभाव से विपरीत होने के कारण मैं ये नहीं, इन रूप नहीं, ये भी मेरी नहीं, ये मुझ रूप नहीं हैं, मैं इनका कर्ता-धर्ता-हर्ता-भोक्ता भी नहीं
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /19