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________________ पृथक् वर्णन किया है। उन्होंने अगृहीत मिथ्यात्व का चौथे अध्याय में तथा गृहीत मिथ्यात्व का पाँचवें, छठवें और सातवें - इन तीन अध्यायों में वर्णन किया है। पाँचवें अध्याय में जैनेतर गृहीत मिथ्यात्वों का, छठवें अध्याय में जैन भट्टारकीय परंपरा में प्रचलित बीसपंथी आम्नाय रूप गृहीत मिथ्यात्वों का तथा सातवें अध्याय में शुद्ध तेरापंथी कहलानेवाले स्वाध्यायी जैनिओं के द्वारा नवीन ग्रहण किए गए विशिष्ट प्रकार के गृहीत मिथ्यात्व का वर्णन किया है। वीतराग विज्ञान पाठमाला भाग दो के तीसरे पाठ में एकेन्द्रिय से लेकर सैनी पंचेन्द्रिय पर्यंत सभी मिथ्यादृष्टिओं में अनादि से ही विद्यमान अगृहीत मिथ्यात्व का वर्णन किया गया था। ये जीव सात तत्त्वों के संबंध में क्या भूलें करते हैं - यह प्रकरण वहाँ था । यहाँ गृहीत मिथ्यात्व का वर्णन है । जो जीव जैन हैं, जिनवाणी का स्वाध्याय करते हैं, अपनी बुद्धि के अनुसार सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के उपासक हैं, जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा मानते हैं; तथापि अपनी अज्ञानता-असावधानीवश इनके भी मिथ्यात्व विद्यमान रहता है। ये जीव सात तत्त्वों के संबंध में कैसी-कैसी विपरीत मान्यताएँ रखते हैं, उन सभी का वर्णन इस पाठ में किया गया है। कुछ ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव हो सकते हैं कि जिनके अगृहीत मिथ्यात्व होने से पूर्वोक्त भूलें विद्यमान होने पर भी, गृहीत मिथ्यात्व नहीं होने से प्रस्तुत पाठवाली भूलें उनके नहीं हों; परंतु गृहीत मिथ्यात्व के साथ अगृहीत मिथ्यात्व नियम से रहने के कारण जिसके ये भूले हैं, उसके पूर्व पठित भूलें तो नियम से हैं ही। इसप्रकार वहाँ अगृहीत मिथ्यात्व वाली सात तत्त्वों संबंधी भूलों का वर्णन किया गया था और यहाँ विशिष्ट प्रकार के गृहीत मिथ्यात्ववाली सात तत्त्वों संबंधी भूलों का वर्णन किया जा रहा है - यही इन दोनों पाठों के विषय में अंतर है।। प्रश्न 3: जैन शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर भी मिथ्यात्व कैसे सुरक्षित रह जाता है ? ___उत्तरः यद्यपि जिन-शास्त्रों/जिनवाणी के प्रत्येक प्रकरण में मिथ्यात्व को ही नष्ट करने का उपाय बताया गया होने से, उसका अध्ययन करके, तदनुसार अपना जीवन बनाने से मिथ्यात्व नष्ट होकर सम्यक्त्व प्रगट होता ही है; तथापि यदि जिनागम का अध्ययन करनेवाला जीव प्रयोजनभूत तत्त्वों संबंधी विपरीत अभिनिवेश/ उल्टी मान्यता नष्ट नहीं करता है, उनकी यथार्थ प्रतीति/भाव-भासना नहीं करता है, सात तत्त्वों सम्बन्धी भूल /18 ..
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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