________________
11. आत्मानुशासन भाषा टीका 12. पुरुषार्थसिद्धिउपाय (अपूर्ण) – इसे पं. दौलरामजी काशलीवाल ने वि. सं. 1827 में पूर्ण किया है। ___ आपकी गद्य शैली परिमार्जित, प्रौढ़ और सहज बोधगम्य है। आपकी शैली का सुन्दरतमरूप आपके मौलिक ग्रन्थ मोक्षमार्ग प्रकाशक में देखने को मिलता है। आपकी भाषा मूलरूप में ब्रज होते हुए भी उसमें खड़ी बोली का खड़ापन तथा साथ ही स्थानीय ढूँढारी भाषा की रंगत भी विद्यमान है। आपकी भाषा आपके भावों को वहन करने में पूर्ण समर्थ व परिमार्जित है। आपके संबंध में विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिए ‘डॉ. हुकमचंद भारिल्ल' द्वारा लिखित शोध प्रबंध ‘पण्डित टोडरमल व्यक्तित्व-कर्तृत्व' का अध्ययन करना चाहिए।
आपका मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ अध्यात्मगर्भित आगम शैली की अद्भुत रचना है; अनादिकालीन मिथ्या मान्यताओं को जड़मूल से नष्टकर, सम्यक् मोक्षमार्ग का दिशा-निर्देश करने में पूर्ण सक्षम है। अपूर्ण होते हुए भी यह रचना आत्महित की दृष्टि से अपूर्व है। शायद इस रचना के कारण ही आपको ‘आचार्यकल्प' की उपाधि से विभूषित किया गया है।
आपका सम्पूर्ण जीवन प्राणीमात्र को धर्मानुरागमय, आत्मोन्मुखीवृत्ति की प्रेरणा का प्रतीक है। अल्पकालीन जीवन में की गई आपकी गंभीरतम साहित्यिक कृतिओं से प्राणीमात्र सदैव उपकृत रहेगा।
प्रश्न 2: पहले वीतराग विज्ञान पाठमाला भाग दो के तीसरे पाठ में सात तत्त्वों संबंधी भूल का प्रकरण आ गया है; तब फिर उसे यहाँ पुनः क्यों लिखा गया है? उनमें और इनमें अंतर क्या है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः सात तत्त्व आदि प्रयोजनभूत पदार्थों के संबंध में विपरीत मान्यता आदि रूप मिथ्यात्व दो प्रकार का है - अगृहीत और गृहीत।
प्रयोजनभूत तत्त्वों के संबंध में अनादि से ही चली आ रहीं विपरीत मान्यताएं आदि अगृहीत मिथ्यात्व कहलाती हैं तथा मुख्यरूप से मनुष्यगति में, उस अगृहीत मिथ्यात्व को पुष्ट करनेवाली नवीन सीखी हुईं विपरीत मान्यताएं आदि गृहीत मिथ्यात्व हैं। पं. टोडरमलजी ने अपने मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ में इन दोनों का ही पृथक्
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /17