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________________ पूरब विदेह में हे जिनवर ! हो आप आज भी विद्यमान। . हो रहा दिव्य उपदेश, भव्य पा रहे नित्य अध्यात्म ज्ञान।।7।। हे भगवन ! आपने घर-गृहस्थी में रहने की कारणभूत रागरूपी आग को नष्टकर महान मुनिपद/शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म धारण किया। इसके बाद आत्मस्वभाव की साधना के बल पर आपने परिपूर्ण ज्ञान/केवलज्ञान प्रगट किया है। आप दर्शनज्ञानमयी स्व-परप्रकाशी सूर्य हैं; अनंतवीर्य से सुशोभित आनंद के कंद हैं। आप अपने आपमें स्वयं से ही परिपूर्ण हैं तथा वास्तव में आप ही आल्हाददायक वास्तविक परिपूर्ण चंद्रमा हैं । हे जिनेन्द्र भगवान ! आप पूर्व विदेह क्षेत्र में आज भी तीर्थंकररूप में विद्यमान हैं तथा आपका दिव्य/पवित्र उपदेश दिव्यध्वनि द्वारा निरंतर हो रहा है; जिससे भव्य जीव सतत अध्यात्मज्ञान/आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। श्री कुंदकुंद आचार्यदेव को, मिला आपसे दिव्य ज्ञान । आत्मानुभूति से कर प्रमाण, पाया उनने आनन्द महान।।8।। . पाया था उनने समयसार, अपनाया उनने समयसार । समझाया उनने समयसार, हो गए स्वयं वे समयसार।।७।। दे गए हमें वे समयसार, गा रहे आज हम समयसार । है समयसार बस एक सार, है समयसार बिन सब असार ।।10।।। मैं हूँ स्वभाव से समयसार, परिणति हो जावे समयसार। है यही चाह, है यही राह, जीवन हो जावे समयसार।।11।। . पुण्य और पवित्रता के अद्भुत भण्डार आचार्य कुंदकुंददेव को भी आपसे दिव्य/पवित्र ज्ञान की प्राप्ति हुई है। उन्होंने उसे आत्मानुभूति द्वारा प्रमाणित करके महान आनंद प्राप्त किया है। उन्होंने समयसार/सम्पूर्ण दिव्यध्वनि का सार शुद्धात्मा प्राप्त कर लिया है। उसे ही उन्होंने अपना लिया/शुद्धात्मा में ही अपनत्व स्थापित कर वे स्वयं उस रूप ही ज्ञानानंदमय सम्यक्रत्नत्रय सम्पन्न हो गए हैं। उन्होंने शुद्धात्मा के प्रतिपादक समयसार ग्रंथ की रचना करके, उस समयसार को अन्य भव्य जीवों के लिए समझाया है। वे हमें शुद्धात्मा का स्वरूप बतानेवाले उस समयसार को दे गए हैं। हम भी आज उसके माध्यम से समयसार स्वरूप शुद्धात्मा के गीत गा रहे हैं। वास्तव में यह समयसार स्वरूप शुद्धात्मा तथा उसके आश्रय से व्यक्त होनेवाला सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय सम्यक्रत्नत्रयरूप व्यक्त समयसार ही समयसार का/सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /13
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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