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भगवान का सामान्य परिचय दिया गया है। इसके बाद की पंक्तिओं में भगवान बनने की विधि बताते हुए; उनकी विद्यमानता को दर्शाया गया है। इसके बाद आचार्य श्री कुंदकुंददेव को सीमंधर भगवान से प्राप्त दिव्यज्ञान की चर्चा करते हुए, उनसे प्राप्त समयसार आदि की तथा अपनी भावना की चर्चा की गई है। अंत में समयसार की महिमा का गान करते हुए पूजन पूर्ण की गई है। इन सबका विस्तार इसप्रकार है -
वैदेही हो देह में, अतः विदेही नाथ । सीमंधर निज सीम में, शाश्वत करो निवास ।।1।। श्री जिन पूर्व विदेह में, विद्यमान अरहंत।
वीतराग सर्वज्ञ श्री, सीमंधर भगवंत।।2।। हे सीमंधर भगवान ! आप देह में रहते हुए भी देह/शरीर से भिन्न अतीन्द्रिय आत्मा में पूर्ण लीन होने से वैदेही/देह से सर्वथा भिन्न कहलाते हैं। विदेह क्षेत्र के विद्यमान तीर्थंकर होने से आप विदेही नाथ/विदेह क्षेत्र के स्वामी कहलाते हैं। अपने नाम के अनुसार आप अपने स्व चतुष्टय या द्रव्य-गुण-पर्याय की सीमा में रहते हुए, सदैव आनन्दपूर्वक रह रहे हैं। आप पूर्व विदेह क्षेत्र के विद्यमान अरहंत हैं। हे सीमंधर भगवान ! आप पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ हैं। ..
हे ज्ञानस्वभावी सीमंधर : तुम हो असीम आनंदरूप। अपनी सीमा में सीमित हो, फिर भी हो तुम त्रैलोक्य भूप।।3।। मोहान्धकार के नाश हेतु, तुम ही हो दिनकर अति प्रचंड ।
हो स्वयं अखंडित कर्म शत्रु को, किया आपने खंड खंड।।4।। ज्ञानस्वभावमयी/केवलज्ञान सम्पन्न हे सीमंधर भगवान ! आप अनंत आनंदमय हैं। आप अपनी सीमा में सीमित/संकुचित रहते हुए भी त्रैलोक्यभूप/तीनलोक के राजा हैं। मोहरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए आप अत्यंत तेजस्वी ज्ञानरूपी सूर्य हैं । यद्यपि आप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि सभी ओर से अखंडित हैं/अभिन्न हैं; तथापि आपने कर्मरूपी शत्रुओं को खंड-खंड/नष्ट कर दिया है।
गृहवास राग की आग त्याग, धारा तुमने मुनिपद महान । आतम-स्वभाव साधन द्वारा, पाया तुमने परिपूर्ण ज्ञान ।।5।। तुम दर्शन ज्ञान दिवाकर हो, वीरज मंडित आनंदकंद । तुम हुए स्वयं में स्वयं पूर्ण, तुम ही हो सच्चे पूर्ण चन्द।।6।।
सीमंधर पूजन /12