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एकांत दुःखरूप/पूर्णतया दुःखमय ही हैं; उनमें सुख रंचमात्र भी नहीं है। ये परिणाम अत्यंत मलिन/अशुद्ध/विकृत हैं तथा कर्म के उदय में, अन्य के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले संयोगी भाव हैं। ये वास्तव में अपने ज्ञानानंद आदि अनंत वैभव सम्पन्न स्वभाव को अपनत्वरूप से नहीं जानने के कारण उत्पन्न होते हैं तथा अपने स्वभाव के विरोधी भाव हैं/चैतन्य स्वभाव की गरिमा को नष्ट करनेवाले परिणाम हैं। ये अपने चैतन्यरूपी घर के आँगन में/एक-एक समयवर्ती क्षणिक पर्याय में काँटों के समान दुःखदायी रूप में पैदा होते रहते हैं। कर्मोदय जन्य होने से ये छाया के समान कभी भी एक रूप नहीं रहते हैं/सतत स्वभाव से ही हीनाधिकतामय हैं। मैं इनसे अत्यधिक दुखी हूँ; अतः हे नाथ ! फल द्वारा आपकी पूजन करके, उसका फल मात्र इतना ही चाहता हूँ कि ये समस्त शुभाशुभ ज्वालाएं शांत हो जाएं/ये सभी कषायमय भाव पर्याय में से भी नष्ट हो जाएं तथा बसंत ऋतु में अमृतोपम फलों को उत्पन्न करनेवाली लताओं के समान मेरे अंदर भी शान्ति-लताएं उत्पन्न हो जाएं/मैं भी पूर्ण वीतरागी बन अतीन्द्रिय आनन्दमय अमर जीवन व्यक्त कर लूँ। अर्घ्य-निर्मल जल-सा प्रभु निजस्वरूप, पहिचान उसी में लीन हुए।
भव-ताप उतरने लगा तभी, चंदन-सी उठी हिलोर हिये।। अभिराम भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति प्रसून लगे खिलने। . क्षुत् तृषा अठारह दोष क्षीण, कैवल्य प्रदीप लगा जलने।। मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए।
फल हुआ प्रभो ! ऐसा मधुरिम, तुम धवल निरंजन स्वस्थ हुए।। इस छंद में अष्ट द्रव्यमय अर्घ्य से भगवान की पूजन करने के बहाने सम्यग्दर्शन से लेकर सिद्ध दशा पर्यंत समस्त शुद्ध दशाओं के व्यक्त होने की प्रक्रिया बताई गई है। वह इसप्रकार -
हे प्रभो ! आप निर्मल जल के समान परमपवित्र अपने ज्ञानानंद स्वभाव को अपनत्व रूप से पहिचानकर उसी में लीन हो गए/अपने स्वभाव के आश्रय से आपने सम्यग्दर्शन प्रगटकर, उसमें ही विशेष स्थिरता से मुनिदशा प्रगट कर ली; जिससे संसाररूपी ताप उतरने लगा/कषायें नष्ट होने लगी और चंदन के समान शीतल लहरें हृदय में उत्पन्न हो गईं/क्षपक श्रेणी का आरोहण कर आप निष्कषाय वीतरागी परमशांत हो गए हैं। जिससे आपने अत्यंत सुन्दर, अविनाशी अनंत चतुष्टयमय
सीमंधर पूजन /10