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धूप - धू-धू जलता दुख की ज्वाला, प्रभु त्रस्त निखिल जगतीतल है।
बेचेत पड़े सब देही हैं, चलता फिर राग प्रभंजन है।। यह धूम धूमरी खा-खाकर, उड़ रहा गगन की गलियों में। अज्ञान-तमावृत चेतन ज्यों, चौरासी की रंगरलियों में।। संदेश धूप का तात्त्विक प्रभु, तुम हुए ऊर्ध्वगामी जग से।
प्रगटे दशांग प्रभुवर तुमको, अन्तःदशांग की सौरभ से ।। हे प्रभो ! इस सम्पूर्ण जगतीतल/विश्व में रहनेवाले समस्त संसारी प्राणिओं के अंदर दुःखों की ज्वाला धू-धू करके निरंतर जल रही है, जिससे यह संसारी प्राणी अत्यधिक त्रस्त है/आकुलित/दुःखी है। इस असह्य दुःख के कारण वह अपनी सुध-बुध खोकर बेहोश पड़ा हुआ है। उसे वस्तु-स्वरूप/अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान नहीं है। इसे बेसुध अवस्था में ही प्रलयंकारी राग तीव्रवेग से बढ़ रहा है/यह जीव अपने संबंध में अज्ञानता के कारण पंचेन्द्रिय विषय-भोगों की तीव्र लालसा में उलझता रहता है और इसके कारण वह चार गति चौरासी लाख योनिओं में भटकभटककर अनंत दुःख पाता हुआ उसीप्रकार यहाँ से वहाँ चक्कर लगा रहा है, जिसप्रकार आकाश में धुंआ यहाँ से वहाँ उड़ता रहता है । यह धूप का धुआँ ऊपर की ओर उड़ रहा है। हे भगवन ! धूप के इस तात्त्विक संदेश को समझकर आप भी जगत से ऊर्ध्वगामी हो गए हैं/जगत में रहते हुए भी आप जगत से पूर्ण विरक्त हो स्वयं में स्थिर होकर, पर से पूर्ण निरपेक्ष वीतरागी हो गए हैं। अपने त्रिकाली ध्रुव तत्त्व की सुगंधी के आश्रय से आपमें दशांगी धूप के समान धर्म के उत्तम क्षमा आदि दश अंग व्यक्त हो गए हैं/आप पूर्णतया सम्यक् रत्नत्रय सम्पन्न अनन्त चतुष्टयमय वीतरागी-सर्वज्ञ हो गए हैं। फल - शुभ-अशुभ वृत्ति एकांत दुःख अत्यंत मलिन संयोगी है।
अज्ञान विधाता है इनका, निश्चित चैतन्य विरोधी है।। काँटों सी पैदा हो जाती, चैतन्य-सदन के आँगन में। चंचल छाया की माया-सी, घटती क्षण में बढ़ती क्षण में।। तेरी फल-पूजा का फल प्रभु ! हों शांत शुभाशुभ ज्वालायें।
मधुकल्प फलों-सी जीवन में, प्रभु ! शान्ति-लतायें छा जायें।। हे प्रभो ! शुभ-अशुभ/मंद कषाय-तीव्र कषाय रूप समस्त ही पराधीन परिणाम
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /9