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________________ 25. अपना सम्पूर्ण वैभव तो अपने में ही है, बाह्य पदार्थों में उसे पाने का प्रयास करना निरर्थक है। जग के इन पर पदार्थों को सुखमय तथा सुख के कारण मानना तो मृग-मरीचिका के समान भ्रम है; अतः इनके लिए किया गया पुरुषार्थ भी मिथ्या है। ___26: आत्मा अक्षय/अविनाशी, शाश्वत/अनादि-अनन्त स्थाई, निर्मल और ज्ञानस्वभावी है । इसके अतिरिक्त जो भी है वह सभी इससे भिन्न, पर है, कर्माधीन और नाशशील है। • 27. जिसका शरीर के साथ भी एकत्व नहीं है; उस आत्मा का एकत्व पुत्र, पत्नी, मित्र आदि के साथ कैसे हो सकता है ? जैसे शरीर से चमड़ी पृथक् हो जाने पर, शरीर में रोम-समूह कैसें रह सकता है ? 28. जो जीव जड़ शरीर आदि परपदार्थों के साथ संयोग करता है, उन्हें अपना मानता है, वह अनन्त दुःख प्राप्त करता है। मोक्षरूपी महल को प्राप्त करने का उपाय तो जड़ शरीर आदि और चेतन आत्मा के पूर्णतया पृथक्-पृथक् होने रूप अत्यन्त सीधा, सरल, सुगम है। ___29. हे आत्मन ! यदि सुखी होना चाहते हो तो संसार-सागर में गिरानेवाले सम्पूर्ण विकल्प-समूहों को छोड़कर; समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित निर्विकल्प, संसार के जंजाल से रहित निर्द्वन्द्व आत्मा में पुनः-पुनः स्थिर होओ। . 30. जीव ने जो भी शुभ या अशुभ कर्म स्वयं किए हैं; वे नियम से अपना फल देते हैं। कार्य स्वयं करे और फल अन्य के अधीन हो तो अपने द्वारा किए गए कर्म व्यर्थ हो जाएंगे, संसार में पुरुषार्थ करने का भी कोई महत्त्व नहीं रह जाएगा। ____ 31. जीव को अपने कर्मों के सिवाय अन्य कोई भी फल नहीं देता है; इसलिए कोई दूसरा मुझे कुछ दे सकता है - यह विचार छोड़कर, प्रमादी बुद्धि नष्टकर, आत्मकल्याणकारी कार्यों में जागृत रहते हुए आत्मा में स्थिर हो जाओ। 32. अमितगति आचार्य कहते हैं कि आश्चर्यकारी अनन्त वैभव सम्पन्न वह महान देव निर्मल, सत्य/वास्तविक, शिव/कल्याणमय, सुन्दर/मनोहारी शाश्वत है । जो इसका सदैव अपने में ही अनुभव करते हैं, वे पवित्रतम पद निर्वाण को प्राप्त करते हैं। भावना बत्तीसी /140
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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