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17. जो सम्पूर्ण विश्व को देख रहा है, कर्मकलंक से पूर्णतया रहित है, विचित्र/आश्चर्यकारी अद्भुत स्वभाव वाला है, स्वच्छ है, विशिष्ट निर्मल है, समस्त विकारों से पूर्णतया रहित है, वह देव मेरे मन को भी पवित्र करे। ___18. कर्मकलंक जिसका कभी स्पर्श भी नहीं कर सकता है, वास्तव में तो यह दिव्य प्रकाश भी जिसका स्पर्श नहीं कर सकता है/जो पर्यायमात्र से अप्रभावित है, जिसने मोह रूपी अन्धकार का पूर्णतया भेदन कर दिया है, वह देव ही मुझे परमशरणभूत है। _____19. जिसकी केवलज्ञानमयी दिव्यज्योति के समक्ष सूर्य का प्रकाश भी तेज-हीन दिखाई देता है, जो स्वयं ज्ञानमय है, स्व-पर प्रकाशक है, वह देव ही मुझे परम शरणभूत है। ___20. जिसके ज्ञानरूपी दर्पण में सभी पदार्थ अत्यन्त स्पष्ट रूप से झलक रहे हैं, जो आदि-अन्त से रहित शाश्वत है, शान्त है, शिव/कल्याण स्वरूप है, वह देव ही मुझे परमशरणभूत है।
21. जैसे अग्नि सहज ही वृक्ष को जला डालती है; उसीप्रकार जिसके भय, विषाद, चिन्ता आदि सभी विकार स्वयं ही नष्ट हो गए हैं, वह देव ही मुझे परमशरणभूत है। ___22. तृण/घास का आसन, चौकी, शिला, पर्वत की चोटी आदि आत्मा में समाधि/स्थिरता के आसन नहीं हैं। इसीप्रकार संस्तर/संथारा, पूजा-प्रतिष्ठा, संघ का सम्मेलन अथवा योग्य संघ का समागम प्राप्त हो जाना, समाधि/आत्म-स्थिरता के साधन नहीं हैं। ___23. प्रिय पदार्थों के बिछुड़ जाने और अप्रिय पदार्थों का संयोग हो जाने पर संसारी प्राणी दुःख-शोक आदि करता है; परन्तु वास्तव में तो सभी विश्ववासना/किसी भी पदार्थ के प्रति किसी भी प्रकार की आसक्ति/समस्त परलक्षी परिणाम हेय/छोड़ने-योग्य ही हैं। एकमात्र अपना निर्मल आत्मा ही उपादेय/आश्रय लेने-योग्य है।
24. बाह्य जगत/जगत में रहनेवाले परपदार्थ मेरे कुछ भी नहीं लगते, मैं भी इन परपदार्थों का कुछ भी नहीं लगता; इनका मुझसे और मेरा इनसे कुछ भी संबंध नहीं है - इस सत्य तथ्य को दृढ़ता पूर्वक स्वीकार करके मैं सम्पूर्ण पर पदार्थों का लक्ष्य छोड़कर, मुक्ति के लिए सदा अपने में ही स्थिर होता हूँ/आत्म-रमण करता हूँ।
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /139