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________________ पर्याय को अनादिकालीन स्थाई मानना पड़ेंगा; परिवर्तन के लिए कहीं, कोई, किसी भी प्रकार की सम्भावना नहीं होने से पुरुषार्थ कुण्ठित हो जाएगा; किसी भी जीव की चारगति, चौरासी लाख योनिआँ, मोह, राग, द्वेष आदि असंख्यात लोकप्रमाण भेदवाले विकारी भाव, जीव समास, पंचपरावर्तन आदि कुछ भी विविधताएं सिद्ध नहीं हो सकेंगीं । प्रथमानुयोग में वर्णित पूर्व भवों की चर्चा; चरणानुयोग की उपदेश शैली, देशना लब्धि आदि; करणानुयोग में वर्णित युग परिवर्तन आदि की चर्चाएं; द्रव्यानुयोग में वर्णित वस्तु का उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यमय स्वरूप, ज्ञान की हीनाधिकता, जाति-स्मरण आदि किसी भी प्रकार का परिवर्तन प्रागभाव की अस्वीकृति में सम्भव नहीं हो सकेगा। इसके अभाव में पुरातत्त्व विभाग, ऐतिहासिक साक्ष्य, शिलालेख, खण्डहर आदि; भूतकालीन सभ्यता, संस्कृति आदि कुछ भी स्वीकार कर पाना सम्भव नहीं हो सकेगा। निष्कर्ष यह है कि प्रागभाव को नहीं मानने पर लौकिक-अलौकिक किसी भी प्रकार का भूतकालीन परिवर्तन स्वीकार करना सम्भव नहीं होगा। सभी की वर्तमान दशा को ही अनादिकालीन मानना पड़ेगा; जो कि वस्तु व्यवस्था के विरुद्ध है । प्रश्न 5: प्रागभाव मानने से होनेवाले लाभ स्पष्ट कीजिए । उत्तरः प्रागभाव मानने से होनेवाले कुछ प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं 1. वर्तमान पर्याय का पूर्व पर्यायों में अभाव होने के कारण अनादि से मिथ्यात्व आदि महापाप करनेवाला होने पर भी यदि मैं अभी अपने भगवान आत्मा को समझकर अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ करूँ; तो सम्यक् रत्नत्रय सम्पन्न धर्ममय दशा प्रगट कर सकता हूँ – यह समझ में आ जाने पर 'मैं पापी हूँ, मैं कैसे तिर सकता हूँ?" इत्यादि हीन भावना निकलकर, सम्यक् पुरुषार्थ जागृत होता है । 2. इसी समझ के बल पर अन्य को भी दीन-हीन- तुच्छ देखने का भाव समाप्त हो जाता है । 3. इसी समझ के बल पर पूर्व में किए गए अच्छे कामों को लेकर घमण्ड करने का परिणाम भी नष्ट हो जाता है । 4. इसी समझ के बल पर अन्य के भी पूर्व कृत अच्छे कार्यों को देखकर वर्तमान की दुष्प्रवृत्तिओं को पुष्ट कर गृहीत मिथ्यात्व के सेवन का भाव समाप्त हो जाता है। चार अभाव /112
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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