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________________ 5. प्रागभाव के कारण जब मेरी ही पूर्व पर्यायें वर्तमान पर्याय का कुछ नही कर सकती हैं; तब अन्य द्रव्य या पर्यायें उसका कुछ भी अच्छा-बुरा कैसे कर सकेंगी? – यह समझ में आ जाने पर परलक्षी पराधीन प्रवृत्ति नष्ट होकर जीवन स्वतंत्र, स्वाधीन, निर्भय हो जाता है। 6. सभी पर्यायें एकसमयवर्ती हैं तथा उनका सभी पूर्व पर्यायों में अभाव है - यह समझ में आ जाने से स्वयं को और अन्य को पर्यायरूप से देखने का भाव ही समाप्त हो जाता है; जिससे पर्याय-मूढ़ताजन्य राग-द्वेष नष्ट होकर जीवन सहज समतामय वीतरागता सम्पन्न हो जाता है। इत्यादि अनेकानेक लाभ प्रागभाव को समझने से प्राप्त होते हैं। प्रश्न 6: प्रध्वंसाभाव का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तरः “कार्यस्यात्मलाभादनन्तराभवनं प्रध्वंसाभावः - आत्मलाभ (उत्पत्ति) होने के बाद कार्य का नहीं होना/ रहना प्रध्वंसाभाव है।” “यद्भावे कार्यस्य नियता विपत्तिः स प्रध्वंसाभावः - जिसके होने पर नियम से कार्य का नाश होता है, वह प्रध्वंसाभाव है।" तात्पर्य यह है कि वर्तमान पर्याय का आगामी पर्याय में नहीं होना, प्रध्वंसाभाव है। 'प्रध्वंसाभाव' प्र, ध्वंस और अभाव – इन तीन शब्दों से मिलकर बना है। प्र=प्रकृष्टरूप से, ध्वंस=नाश में, अभाव नहीं होना; अर्थात् प्रकृष्ट रूप से नष्ट होनेवाली इस वर्तमान पर्याय का आगामी सभी पर्यायों में नहीं होना/रहना प्रध्वंसाभाव है। जैसे आगामी पर्यायरूप छाँछ में वर्तमान दही का अभाव प्रध्वंसाभाव है। अरहन्त पर्याय में सिद्ध पर्याय का अभाव, छद्मस्थ पर्याय में सर्वज्ञ पर्याय का अभाव, अन्तरात्मा दशा में परमात्मा दशा का अभाव प्रध्वंसाभाव है इत्यादि । प्रश्न 7: प्रध्वंसाभाव को नहीं मानने पर क्या-क्या समस्याएं उपस्थित होंगी? उत्तरः प्रध्वंसाभाव को नहीं मानने पर प्रत्येक कार्य अनन्तकालीन स्थाई हो जाएगा; गरीब सदा गरीब रहेगा, धनी सदा धनी रहेगा; मूर्ख सदा मूर्ख, विद्वान सदा विद्वान रहेगा; अरे ! यह सब तो दूर ही रहो; निगोदिया सदा निगोदिया ही रहेगा; हम भी अनन्तकाल पर्यन्त निगोद में ही पड़े रहते । यदि इस अभाव को नहीं मानेंगे तो किसी भी जीव की चारगति, चौरासी लाख योनिआँ सिद्ध नहीं होंगी; गुणस्थान, जीवसमास, पंचपरावर्तन आदि भी सिद्ध नहीं होंगे; अशुभ, शुभ, शुद्ध भाव सिद्ध नहीं होंगे। बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मापना सिद्ध नहीं होगा। प्रथमानुयोग में तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /113
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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