________________
सुखमय दशा व्यक्त हो जाती है; अशुद्धता का सदा-सदा के लिए पूर्णतया अभाव हो जाता है; तथापि यह भी सुखमय होने से प्रगट करने की अपेक्षा पूर्ण उपादेय होने पर भी कर्म सापेक्ष होने के कारण आश्रय लेने के लिए हेय ही है। इसमें अपनत्व करना दुःखमय ही है, सुखमय नहीं । यह भी वैभाविक भाव ही है । यह अनादिकालीन भी तो नहीं है; स्वयं इसके आश्रय से यह उत्पन्न भी नहीं होता है । सदैव इसमें परत्व बुद्धि रखते हुए अपने परमपारिणामिक भाव में तन्मय होने से यह व्यक्त हो जाता है ।
5. औपशमिक भाव समझने से यह ज्ञात होता है कि जब भी इन सभी पर्याय रूप भावों से भेदविज्ञान कर, अपने परमपारिणामिक भाव को अपनत्वरूप से स्वीकार कर उसमें क्षणिक स्थिरता होती है; तब सर्वप्रथम श्रद्धा संबंधी औपशमिक भाव रूप औपशमिक सम्यक्त्व प्रगट होता है । यही धर्म की / सुखी होने की / मोक्षमार्ग की प्रारम्भिक दशा है; अतः धर्म प्रगट करने के लिए सर्वप्रथम तत्त्व निर्णय पूर्वक स्व-पर संबंधी भेदविज्ञान के अभ्यास से श्रद्धा की विपरीतता को नष्ट करने की दिशा में सम्यक् पुरुषार्थ करना चाहिए; तथा यह भी कर्म सापेक्ष, क्षणिक भाव है; त्रैकालिक अपना स्वभाव नहीं है; अतः इससे भी सतत भेदविज्ञान करते हुए अपने परमपारिणामिक भाव में अपनत्व पूर्वक स्थिर रहने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
सारांश यह है कि यदि हमें धर्म करना है, सुखी होना है तो पर सापेक्ष, पर्याय रूप इन औदयिक आदि सभी भावों से अपनत्व हटाकर मात्र परम पारिणामिक भावरूप अपने ज्ञानानन्द स्वभावी भगवान आत्मा का आश्रय लेना चाहिए। इससे ही धर्म की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और पूर्णता होती है । सर्वस्व समर्पण पूर्वक अपने पुरुषार्थ को इस दिशा में सक्रिय कर अतीन्द्रिय आनन्दमय सम्यक् रत्नत्रय सम्पन्न जीवन हो जाना ही इस सम्पूर्ण प्रकरण को समझने का लाभ है ।
पंचमभाव के स्मरण का हेतु
अंचितपंचमगतये पंचमभावं स्मरन्ति विद्वान्सः । संचितपंचाचाराः किंचनभावप्रपंचपरिहीणाः ॥ ५८ ॥
( ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यरूप) पाँच आचारों से युक्त और किंचित् भी परिग्रहप्रपंच से सर्वथा रहित ऐसे विद्वान पूजनीय पंचमगति को प्राप्त करने के लिए पंचम भाव का स्मरण करते हैं । - नियमसार कलश- ५८
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 109
.