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इसप्रकार अपनी-अपनी योग्यतानुसार पाँच भावों का काल अनादि, अनन्त, सादि, सान्त आदि रूप में पाया जाता है।
प्रश्न 15: इन पाँच भावों का ज्ञेय, हेय, उपादेय रूप में विभाजन कीजिए।
उत्तरः औदयिक आदि पाँचों भाव जीव के असाधारण भाव होने पर भी सुखमय जीवन जीने के लिए इन सभी का एक समान महत्त्व नहीं है। जाने बिना तो उपयोगिता-अनुपयोगिता का निर्णय भी नहीं हो सकता है; अतः जानने-योग्य तो सभी हैं। जानने के बाद ही हेय-उपादेय का निर्णय होता है। कहा भी है - . “बिन जाने तैं दोष-गुनन को कैसै तजिए गहिए।"
शुद्ध जीवत्वरूप पारिणामिक भाव पर से पूर्ण निरपेक्ष, अनादि-अनन्त, स्वाधीन होने से आश्रय करने योग्य है । इस त्रिकाली ध्रुव ज्ञायक स्वभाव के आश्रय से ही धर्म की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और पूर्णता होती है; अधर्म का नाश होता है अतः यह आश्रय करने की अपेक्षा सदैव सभी को पूर्णतया उपादेय है।
औदयिक भाव विकाररूप होने के कारण पूर्णतया हेय है। भूमिकानुसार विद्यमान रहने पर भी साधक जीव मान्यता में तो इन्हें पूर्णतया हेय ही मानता है तथा सहज शुद्ध अपने पारिणामिक भाव में लीनता के बल पर इन्हें नष्ट करने का सतत अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ करता रहता है। - औपशमिक, क्षायिक तथा साधक दशावाला क्षायोपशमिक भाव कथंचित् सुखमय, मोक्षमार्ग या मोक्षरूप होने से प्रगट करने की अपेक्षा उपादेय होने पर भी; पर्यायरूप होने से आश्रय करने योग्य नहीं हैं; अतः हेय हैं।
इसप्रकार सुखी होने की अपेक्षा पारिणामिक भाव परम उपादेय है। साधक दशा का क्षायोपशमिक भाव, औपशमिक भाव और क्षायिक भाव कथंचित् हेय तथा कथंचित् उपादेय है । औदयिक भाव पूर्णतया हेय है तथा शेष रहा क्षायोपशमिक भाव मात्र ज्ञेय है; साधक दशा प्रगट करने के लिए इसका उपयोग साधन के रूप में हो जाता है।
प्रश्न 16: कहीं-कहीं ‘परमपारिणामिक भाव' शब्द भी आता है; यह क्या है?
उत्तरः शुद्ध जीवत्वरूप पारिणामिक भाव को ही परम पारिणामिक भाव कहते हैं। कर्मरूप निमित्त की अपेक्षा जीव की पर्यायों को देखने पर ही उनके औदयिक आदि नाम होते हैं; वास्तव में तो प्रत्येक द्रव्य की प्रत्येक पर्याय पूर्णतया पर से
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /103