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________________ निरपेक्ष, अपनी स्वतंत्र योग्यता से प्रगट होने के कारण परिणाम ही कहलाती है; अतः उसका भाव पारिणामिक है। इसके अतिरिक्त पारिणामिक भाव के भी भव्यत्व, अभव्यत्व, अशुद्ध जीवत्व आदि भेद भी हैं । जब इन सभी को पारिणामिक कहते हैं, तब इनसे पृथक् करने के लिए शुद्ध जीवत्व रूप पारिणामिक भाव को परम पारिणामिक कह देते हैं। परम शुद्ध निश्चयनय का विषय होने से, परमपद पंचमगति मोक्ष की प्राप्ति का आश्रयभूत कारण होने से, ध्यान का परम ध्येय, ज्ञान का परम ज्ञेय और श्रद्धा का परम श्रद्धेय होने से परम उपादेय होने से, इस पारिणामिक भाव के साथ ‘परम' विशेषण लगाया जाता है। इसप्रकार अन्य से पृथक् करने के लिए इस पारिणामिक भाव को ‘परम पारिणामिक भाव' कहते हैं। प्रश्न 17: औपशमिक आदि पाँच भावों के क्रम की सहेतुक सिद्धि कीजिए ? उत्तरः जिनागम में इन भावों को औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक - इस क्रम से रखा गया है। इसके कारण निम्नलिखित ____ 1. औपशमिक भाव को सर्वप्रथम रखने का कारण - निम्नलिखित कारणों से औपशमिक भाव को सर्वप्रथम रखा गया है - अ. औपशमिक भाव से ही धर्म का प्रारम्भ होता है। जब कोई जीव पाँच लब्धि पूर्वक स्वोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा ज्ञानानन्द स्वभावी अपने भगवान आत्मा का आश्रय लेता है, तब उसे सर्वप्रथम औपशमिकभाव रूप शुद्धता, अतीन्द्रिय आनन्दमय दशा ही प्रगट होती है। ब. इसके भेद तथा इसका समय कम होने से, इसमें पाए जानेवाले जीवों की संख्या सबसे कम है। स. उत्पन्न होकर नियम से नष्ट होने के कारण यह एक समयवर्ती पर्याय और परम्परा दोनों की अपेक्षा ही सादि-सान्त है। इत्यादि अनेक कारणों से इसे सर्वप्रथम स्थान मिला। ____ 2. औपशमिक के बाद क्षायिक को रखने का कारण – दोनों भाव वीतरागतामय होने पर भी दोनों के स्वभाव परस्पर विरुद्ध होने के कारण क्षायिकभाव को औपशमिक भाव के बाद रखा है। वह इसप्रकार - पंचभाव /104
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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