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आत्मा में परिपूर्ण स्थिरता नहीं होने से ज्ञानावरण आदि घाति कर्मों की उदयरूप दशा के समय होनेवाले परपदार्थों की अजानकारीरूप भाव को अज्ञान नामक
औदयिक भाव कहते हैं। इसमें आत्मज्ञान मय सम्यग्ज्ञान हो जाने पर भी सम्पूर्ण लोकालोक की प्रत्यक्ष जानकारी नहीं हो पाती है।
असंयत - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुण सम्पन्न अपने भगवान आत्मा की अपनत्वरूप से प्रतीति हो जाने पर, विशेष स्थिरता का अभाव होने से, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरणरूप चारित्र मोहनीय कर्म की उदयावस्था के समय होनेवाले असंयमित/अविरति भाव को असंयत नामक औदयिक भाव कहते हैं। इस भाव में सकल संयम आदि रूप विशिष्ट शुद्धोपयोग नहीं हो पाता है। ___असिद्धत्व - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुण सम्पन्न अपने भगवान
आत्मा में सब ओर से परिपूर्ण स्थिरता के अभाव में, कर्मों की उदयावस्था के समय होनेवाले परम यथाख्यात चारित्र/कृतकृत्यपने के अभाव को असिद्धत्व कहते हैं। इस भाव में संसारी दशा ही रहती है; निकल परमात्मा रूप सिद्ध दशा नहीं होती है।
कृष्ण आदि षट्लेश्या - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुण सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में निश्चल-निस्तरंग स्थिरता के अभाव में कर्मों की उदयावस्था के समय होनेवाले कषाय से अनुरंजित आत्मप्रदेशों के कम्पनरूप भाव को लेश्या नामक औदयिक भाव कहते हैं। जीव के परिणाम रूप भाव लेश्या के छह भेद हैं - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल । कषाय की तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर, मन्दतम दशा की अपेक्षा ये छह भेद हो जाते हैं। अरहंत भगवान के कषाय नहीं होने पर भी योग प्रवृत्ति विद्यमान होने के कारण उपचार से शुक्ल लेश्या कही जाती है।
इसप्रकार औदयिक भाव के इक्कीस भेद हैं।
प्रश्न 10: जबकि उदय आठों ही कर्मों का उनकी सभी उत्तर प्रकृतिओं का होता है; तब फिर उन सभी संबंधी औदयिक भाव क्यों नहीं बताए जाते हैं ? इनके मात्र 21 भेद ही क्यों हैं ?
. उत्तरः यद्यपि उदय सभी कर्म प्रकृतियों का होता है; तथापि उन सभी संबंधी औदयिक भाव नहीं होते हैं.। शरीर आदि 62 प्रकृतिओं के उदय का संबंध मात्र शरीर के साथ होने से, नरक आदि 4 आयुष्क का भव के साथ और नरकगत्यानुपूर्वी आदि 4 गत्यानुपूर्वी का विग्रहगति रूप क्षेत्र के साथ संबंध होने से इन 62+4+4=70
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /99