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________________ नरकादि चार गति - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्तगुण सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण स्थिरता के अभावरूप विभाव परिणति से, नरकगति आदि नामकर्म तथा तत्संबंधी अन्य कर्मों के उदय आदि के समय होनेवाले जीव के विकारी भावों को नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति रूप औदयिक भाव कहते हैं । इनसे जीव की उस-उस गति संबंधी विशिष्ट शुभाशुभ प्रवृत्तिआँ होती हैं। चौरासी लाख योनिआँ, जीवसमास, कुल कोटी आदि रूप व्यंजन पर्यायगत जीव के सभी भेद इन्हीं चार औदयिक भावों में गर्भित हो जाते हैं। क्रोध आदि चार कषाय – ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुण सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण स्थिरता के अभावरूप राग-द्वेषमय विकृति से, चारित्र मोहनीय कषाय कर्म की उदय रूप दशा के समय होनेवाले जीव के परलक्षी भावों को क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायमय औदयिक भाव कहते हैं। इनका आत्मा में आत्मा को कसने, दुःख देने रूप आकुलतामय कार्य होता है। सम्यक्त्व आदि के घात की अपेक्षा इनके अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन संबंधी क्रोधादिमय सोलह भेद हो जाते हैं। इनके भी उत्तर भेदों की अपेक्षा इनके असंख्यात लोक प्रमाण भेद हो जाते हैं। कषाय की मन्दता-तीव्रता रूप सभी शुभाशुभ भाव इनमें ही गर्भित हैं। ___ स्त्रीवेद आदि तीन लिंग – ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुण सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण स्थिरता के अभावरूप विभाव परिणति से, चारित्र मोहनीय नोकषाय कर्म की उदयरूप दशा के समय होनेवाले जीव के मैथुनभाव रूप परलक्षी भावों को स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेदमय लिंगरूप औदयिक भाव कहते हैं। अव्रम्ह, कुशील, शील के दोष आदि रूप सभी प्रवृत्तिआँ इसी में गर्भित हो जाती हैं। मिथ्यादर्शन - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुण सम्पन्न अपने भगवान आत्मा की अपनत्वरूप से प्रतीति के अभाव में, दर्शनमोहनीय की उदयरूप दशा के समय होनेवाले जीव के आत्म-अश्रद्धान/तत्त्व-अश्रद्धान/अतत्त्व-श्रद्धान/ तत्त्व की अप्रतिपत्ति/विपरीत श्रद्धा को मिथ्यादर्शन कहते हैं। यह औदयिक भाव ही अनादि कालीन सर्व सांसारिक दुःखों का मूल कारण है । यह नष्ट हुए बिना अन्य कोई औदयिक भाव कभी भी नष्ट नहीं हो सकते हैं। ___ अज्ञान - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त गुण सम्पन्न अपने भगवान पंचभाव /98
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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