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देशघाति और सर्वघाति - ये दो भेद हैं। देशघाति प्रकृतिओं में सर्वघाति और देशघाति - दोनों ही प्रकार के स्पर्धक होने से इनमें क्षयोपशम होता है । सर्वघाति प्रकृतिओं में मात्र सर्वघाति स्पर्धक होने से उनमें क्षयोपशम नहीं होता है। मोहनीय कर्म की सम्यक्त्व प्रकृति, संज्वलन चतुष्क और नौ नो कषायें - ये चौदह प्रकृतिआँ ही देशघाति हैं; शेष चौदह प्रकृतिऔं सर्वघाति हैं ।
छठवें आदि साम्परायिक गुणस्थानों में संज्वलन चतुष्क और नौ नो कषायकर्म रूप देशघाति प्रकृतिओं का क्षयोपशम होने से वहाँ विद्यमान चारित्र क्षायोपशमिक चारित्र कहलाता है । पाँचवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म रूप सर्वघाति 1 प्रकृतिओं का उदय है; वास्तव में तो इनका क्षयोपशम होता ही नहीं है; परन्तु इनका उदय संयमासंयम रूप देशसंयम का घात करने में समर्थ नहीं है; इनके उदय में भी वह व्यक्त रहता है; अतः इन्हें उपचार से क्षयोपशम रूप मानकर तत्संबंधी भावों को क्षायोपशमिक भाव में गिन लिया है। यह क्षायोपशमिक चारित्र के समान क्षायोपशमिक भाव नहीं है; अतः इसे उससे पृथक् कर संयमासंयम नाम दिया है। इसप्रकार इन दोनों में स्वरूपगत अंतर होने से इन दोनों को पृथक्-पृथक् गिना गया है ।
प्रश्न 9 : औदयिक भाव और उसके भेदों का स्वरूप स्पष्ट कीजिए । उत्तरः “उदयः प्रयोजनमस्येति औदयिकः - जिस भाव का उदय प्रयोजन है, वह औदयिक है । '
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" तेषामुदयादौदयिकः - उन कर्मों के उदय से होनेवाला भाव औदयिक है। " “उदयेन युक्तः औदयिकः - उदय से युक्त भाव औदयिक है । ” तात्पर्य यह है कि आत्मा के जिन विभाव भावों का निमित्त पाकर कर्म का उदय होता है, उन्हें; अथवा कर्मों की उदयरूप दशा के समय होनेवाले आत्मा के भावों को औदयिक भाव कहते हैं ।
'उदय' शब्द के साथ संबंधवाचक 'ठञ्' प्रत्यय का प्रयोगकर 'औदयिक' शब्द बनता है।
सभी कर्मों में उदयरूप अवस्था होने के कारण तथा कर्म और जीव के विभाव - दोनों ही असंख्यात लोक प्रमाण भेदवाले होने से यद्यपि औदयिक भाव के भी असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं; तथापि संक्षेप में समझने की दृष्टि से इसके इक्कीस भेद किए जाते हैं। वे इसप्रकार हैं
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तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 97