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क्षायोपशमिक चारित्र - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा को अपनत्वरूप से जानकर, मानकर, उसमें विशिष्ट स्थिरता से दर्शन मोह के अभाव पूर्वक चारित्र मोहनीय कर्म की क्षयोपशमरूप दशा के समय व्यक्त हुए चारित्रगुण के शुद्ध भाव को क्षायोपशमिक चारित्र कहते हैं। यह भी संवर-निर्जरामय मोक्षमार्ग सम्पन्न दशा है। ___संयमासंयम – ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा को अपनत्वरूप से जानकर, मानकर, उसमें ही स्थिरता से, दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबंधी के अभावपूर्वक अप्रत्याख्यानावरण के भी अनुदय के समय व्यक्त हुए चारित्र गुण के संयम-असंयम रूप मिश्रभाव को संयमासंयमरूप क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। इसमें त्रस हिंसा आदि के त्यागरूप भावों के साथ ही स्थावर हिंसा आदि का अत्यागरूप भाव भी विद्यमान रहता है। इसमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप बारह व्रत तथा ग्यारह प्रतिमारूप व्रतअव्रतमय मिश्रभाव होते हैं। इसे देशचारित्र, विरताविरत, देशसंयम, देशव्रती, अणुव्रती, संयतासंयत, पंचमगुणस्थान आदि भी कहते हैं। ये जीव मध्यम अन्तरात्मा भी कहलाते हैं।
इसप्रकार क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद हैं। प्रश्न 7: किस कर्म संबंधी कौन सा क्षायोपशमिक भाव है ?
उत्तरः मात्र घाति कर्मों में ही क्षयोपशम दशा होती है; अतः क्षायोपशमिक भाव इन संबंधी ही हैं। उनमें से चार ज्ञान और तीन अज्ञान ज्ञानावरण संबंधी, तीन दर्शन दर्शनावरण संबंधी; क्षायोपशमिक सम्यक्त्व दर्शनमोह और क्षायोपशमिक चारित्र तथा संयमासंयम चारित्रमोह – इसप्रकार ये तीन भाव मोहनीय संबंधी हैं। शेष दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य रूप पाँच लब्धिआँ अंतराय संबंधी हैं। इसप्रकार अठारह भेदवाला क्षायोपशमिक भाव ज्ञानावरण आदि चार घाति कर्म संबंधी है। __ प्रश्न 8: चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से होने के कारण जव क्षायोपशमिक चारित्र और संयमासंयम दोनों क्षायोपशमिक भाव ही हैं; तव उन्हें पृथक्-पृथक् क्यों गिना गया है ? - उत्तरः ये दोनों क्षायोपशमिक भाव होने पर भी दोनों में स्वरूपगत अंतर होने से दोनों को पृथक्-पृथक् गिना गया है। वह इसप्रकार - घाति कर्म-प्रकृतिओं के
पंचभाव /96