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अपेक्षा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान रूप क्षायोपशमिक भाव कहते हैं ।
कुमति आदि तीन अज्ञान - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा की विराधनाकर परपदार्थों को अपना मानते हुए ज्ञानावरण आदि कर्मों की क्षयोपशमरूप दशा के समय व्यक्त हुए ज्ञानगुण के विकसित- अविकसित रूप भावों को मिथ्यात्व पूर्वक जानने योग्य पदार्थ तथा जानने की प्रक्रिया की अपेक्षा कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, विभंगावधि/कुअवधिज्ञानरूप क्षायोपशमिक भाव कहते हैं।
चक्षु आदि तीन दर्शन - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण संतुष्टि के अभाव में, दर्शनावरण आदि कर्मों की क्षयोपशमरूप दशा के समय व्यक्त हुए दर्शनगुण के सामान्य प्रतिभास करने में समर्थ विकसित-अविकसित भावों को इन्द्रिय और पदार्थ की अपेक्षा चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शनमय क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। (मति आदि चार, कुमति आदि तीन और चक्षु आदि तीन- इन दश भावों की चर्चा 'वीतराग विज्ञान विवेचिका' के ‘उपयोग' नामक पाठ में पृष्ठ 166 से 170 पर्यंत की गई है; यहाँ पुनः उस प्रकरण का अध्ययन कर लें ।)
दान आदि पाँच लब्धि - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण संतुष्टि के अभाव में अन्तराय आदि कर्मों की क्षयोपशमरूप दशा के समय व्यक्त हुए दान आदि गुणों के विकसित- अविकसित रूप भावों को दान लब्धि, लाभ लब्धि, भोग लब्धि, उपभोग लब्धि, वीर्य लब्धिरूप क्षायोपशमिक भाव कहते हैं | ज्ञान- आनन्द आदि स्वभाव की व्यक्त सामर्थ्य के रूप में, दान आदि की सामर्थ्य के रूप में इनका कार्य व्यक्त होता है ।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा को अपनत्वरूप से जानकर, मानकर, उसकी प्रतीति से, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उदयाभावी क्षय और सद्अवस्थीरूप उपशममय अनुदय पूर्वक सम्यक्त्व प्रकृति के उदयमय क्षयोपशम दशा के समय व्यक्त हुआ श्रद्धा गुण का शुद्ध भाव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है । चल, मल, अगाढ़ दोषों से सहित होने पर भी यह सम्यक्त्व आत्म-प्रतीतिरूप संवर- निर्जरामय मोक्षमार्ग सम्पन्न है ।
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 95