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भगवन ! मेरा मन अनादि से ही इच्छाओं रूपी अग्नि की ज्वालाओं से जल रहा है । वह पंचेन्द्रिय विषय-भोगों की विविध सामग्रिओं से शांत होनेवाला नहीं है । इस अनादिकालीन अंतरंग जलन को शांत करने के लिए हे प्रभो ! आप ही मलयागिरि चंदन के समान हैं अर्थात् आपकी वाणी के मुख्य केन्द्र बिंदु अपने शुद्धात्मा में स्थिरता ही एक मात्र इस अंतर्दाह को मिटाने में सक्षम है; अतः संसार के ताप को नष्ट करनेवाले हे भगवान! मैं आपके चरणारविन्दों की चंदन से पूजन कर रहा हूँ; आपको मेरा शत शत वंदन है ।
इसप्रकार इस छंद द्वारा लोक-मान्य शीतलता प्रदायी चंदन और चंद्रमा के साथ भगवान की तुलना कर भगवत स्वरूप शुद्धात्मा को ही वास्तविक शीतलस्वभावी. सिद्धकर, उसमें स्थिरता के प्रतीक रूप में चंदन से भगवान की उपासना की गई है । अक्षत - प्रभु ! अक्षतपुर के वासी हो, मैं भी तेरा विश्वासी हूँ । क्षत-विक्षत में विश्वास नहीं, तेरे पद का प्रत्याशी हूँ । । अक्षत - साम्राज्य लिया तुमने । अक्षत - ब्रम्हाण्ड किया तुमने । । मैं केवल अक्षत - अभिलाषी, अक्षत अतएव चरण लाया ।
निर्वाण - शिला के संगम-सा, धवलाक्षत मेरे मन भाया । ।
हे भगवन ! वास्तव में आप ही अक्षतपुर/ /कभी भी नष्ट नहीं होनेवाले मोक्षनगर के निवासी हैं। मेरा भी यह विश्वास है / मेरी भी यह मान्यता है कि अपने स्थाई स्थान में स्थाई निवास ही सुखमय है । इन क्षत-विक्षत / सदैव नष्ट होनेवाले / क्षणभंगुर पदों में अब मेरा विश्वास नहीं रह गया है अर्थात् राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, चक्रवर्ती, इंद्र. अहमिंद्र आदि क्षणिक पदों के प्रति मेरे मन में तनिक भी आकर्षण नहीं है । मैं तो मात्र आपके ही स्थाई सिद्ध पद का प्रत्याशी / उम्मीदवार बनकर आया हूँ। आपने अनादि-अनंत ध्रुव अक्षत आत्मा में अक्षत संबल से / परिपूर्ण स्थिरता से अक्षत साम्राज्य / अविनाशी (भाव) मोक्षपद प्राप्त किया है । इस अविनाशी साम्राज्य को प्राप्तकर आपने जगत-जन को अक्षत विज्ञान / अनादि अनंत वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान दिया है तथा अपने ब्रम्हाण्ड को भी अक्षत कर लिया है / अपनी समस्त पर्यायों को परिपूर्ण शुद्ध स्वाभाविक निर्मलता सम्पन्न कर लिया है। मुझे भी मात्र इसी अक्षत पद की चाह/इच्छा है; अतः अक्षत लेकर आपके चरणों में आ गया हूँ। निर्वाण तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /5
अक्षत का अक्षत-संबल ले, अक्षत-विज्ञान दिया जग को,