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सोलहवाँ बोल असंख्यप्रदेश में रहता है और व्यवहार से ऊर्ध्वगमनस्वभाव के कारण लोक के अग्रभाग में विराजता है। अतः अन्य मतवाले की मान्यता वस्तुस्वरूप से अत्यन्त विपरीत है। जीव अपने असंख्यप्रदेश में रहता है और लोक में पसरकर पर में व्याप्त नहीं होता है – इसका नाम अनेकांत है।
इस पन्द्रहवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है - अ-नहीं, लिंग अमेहनाकार द्वारा, ग्रहण-लोक में व्यापकता। अर्थात् आत्मा लोकव्याप्त नहीं है, ऐसा तू तेरे स्वज्ञेय को जान। इसप्रकार अपने आत्मा को, 'लोक व्याप्तिवाला नहीं है; परन्तु असंख्यप्रदेशात्मक आकार में निश्चित रहता है', – ऐसा श्रद्धा और ज्ञान में लेना धर्म का कारण है।
सोलहवाँ बोल न लिंगानां स्त्रीपुन्नपुंसकवेदानां ग्रहणं यस्येति स्त्रीपुन्नपुंसकद्रव्यभावाभावस्य।
अर्थ :- जिसके लिंगों का अर्थात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों का ग्रहण नहीं है, वह अलिंगग्रहण है ; इसप्रकार आत्मा द्रव्य से तथा भाव से स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक नहीं है,' इस अर्थ की प्राप्ति होती है। आत्मा द्रव्य से अथवा भाव से स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक नहीं है। ऐसा तू जान।
शरीर का आत्मा में अभाव है। चौदहवें बोल में कहा था कि पुरुषादि की इन्द्रिय का आकार आत्मा में नहीं है। यहाँ कहते हैं कि स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक शरीर का आत्मा में अभाव है; क्योंकि वह जड़ है अजीवतत्त्व है और आत्मा तो जीवतत्त्व है। वेद का विकारी भाव त्रिकाली स्वभाव में नहीं है।
अपना स्वभाव आनंदस्वरूप है, उसे भोगने से च्युत होकर परशरीर को भोगने का भाव होता है। वह भाववेदरूप अशुभभाव है, वह पापतत्त्व है। आत्मा जीवतत्त्व है, अतः उस भाववेद का त्रिकाली आत्मस्वभाव में अभाव है। इसप्रकार आत्मा द्रव्य तथा भाव वेदों से रहित है। परन्तु कोई कहता है