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अलिंगग्रहण प्रवचन कि पुरुष, स्त्री आदि का शरीर द्रव्यवेद है और आत्मा में होनेवाले विकारी वेदभाव भाववेद हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है, यह तो मात्र भ्रम है - वह कथन तो झूठा है। यहाँ तो कहते हैं कि संसार अवस्था में अपने स्वभाव से च्युत होता है, उस समय किसी भी भाववेद का उदय तो है और बाह्य में कोई भी द्रव्यवेद तो है, परन्तु वह आत्मा के त्रिकालीस्वभाव में नहीं है; ऐसा उस द्रव्य तथा भाववेद का स्वभावदृष्टि के द्वारा निषेध कराया है।
आत्मा अवेदी है और उसके लक्ष से धर्म होता है ।
आत्मा अवेदी है, इसप्रकार सच्चा ज्ञान कब किया कहलाता है? द्रव्यवेद जो अजीव है क्या उसके सन्मुख देखने से सम्यक्त्व होगा? अथवा भाववेद पापतत्त्व है क्या उसके सन्मुख देखने से सम्यक् प्रतीति होगी ? नहीं, आत्मा भाववेद और द्रव्यवेद रहित अवेदी है, अपने ज्ञाता-दृष्टा शुद्ध आनंद का भोग करनेवाला है, ऐसी स्वदृष्टि करे और पर की दृष्टि छोड़े तो सम्यग्दर्शन होता है और धर्म होता है । अपना आत्मा अवेदी है, ऐसा श्रद्धा-ज्ञान करने के पश्चात् द्रव्यवेद का, जो कि अजीव है, उसका ज्ञान करे तो व्यवहार से उसका अजीव संबंधी ज्ञान सत्य है । अपना आत्मा अवेदी है, ऐसा श्रद्धा - ज्ञान करने के पश्चात् भाववेद अपना अशुभ परिणाम है, वह पापतत्त्व है - ऐसा ज्ञान करे तो व्यवहार से उसका पापतत्त्व सम्बन्धी ज्ञान सत्य है; परन्तु जीवतत्त्व के यथार्थज्ञान बिना अन्य तत्त्वों का ज्ञान सच्चा नहीं होता है ।
अज्ञानी जीव पर को अपना आधार मानता है ।
अज्ञानी जीव को अपने अवेदी आत्मा का भान नहीं है; अतः संयोगों तथा विकारीभाव पर उसकी दृष्टि जाती है। स्त्रियाँ कहती हैं कि हम क्या करें ? हम तो अबला हैं; अतः किसी के आधार बिना जीवित नहीं रह सकती हैं । पुरुष कहते हैं कि हम बहुतों का पालनपोषण करते हैं, स्त्री, कुटुम्ब, बालबच्चों को हमारा आधार है। नपुंसक कहता है कि हम तो जन्म से ही नपुंसक हैं, अत: हम क्या कर सकते हैं? इसप्रकार वेद की संयोगीदृष्टि के कारण पराधीनता की कल्पना करते हैं; उनको कभी भी धर्म नहीं होता है ।