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________________ अलिंगग्रहण प्रवचन ६० के प्रसिद्ध साधनरूप आकारवाला लोकव्याप्तिवाला नहीं है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। - आत्मा लोक व्याप्तिवाला नहीं है; ऐसा स्वज्ञेय को तू जान । अन्य मताक्लंबी आत्मा को लोकव्यापक मानता है । अमुक लोगों का मानना है कि आत्मा विभाव से पृथक् अर्थात् मुक्त होता है, तब सम्पूर्ण लोकप्रमाण व्याप्त हो जाता है। जिसप्रकार पक्षी के पंख टूट जाने पर पक्षी वहीं का वहीं पड़ा रहता है और हिलता - चलता नहीं है; उसीप्रकार इस आत्मा के पुण्य-पापरूपी पंख टूट जाने पर वह लोक में व्याप्त होकर पड़ा रहता है, वह अपने ऊर्ध्वगमन स्वभाव से व्यवहार से ऊँचाई पर नहीं जाता है; ऐसा अनेक पाखंडी मानते हैं। जबतक अशुद्ध होता है, तबतक मर्यादित क्षेत्र में रहता है; परन्तु शुद्ध होने के पश्चात् अमर्यादित क्षेत्रप्रमाण रहता है, ऐसा पाखण्डी लोक मानते हैं, परन्तु यह बात झूठ है । आत्मा अपने असंख्यप्रदेशात्मक क्षेत्र में ही रहता है। प्रत्येक आत्मा जिसप्रकार संसार में प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न रहता है; उसीप्रकार मुक्त होने के पश्चात् भी भिन्न-भिन्न रहता है। वह लोक में व्याप्त नहीं होता है, अपने असंख्य प्रदेश को छोड़कर लोक में व्याप्त होना, यह उसका स्वभाव नहीं है । आत्मा शुद्ध होने के पश्चात् अपने अंतिम शरीरप्रमाण से किंचित् न्यून अपने आकार में - निश्चय से अपने असंख्य प्रदेश में रहता है और उर्ध्वगमनस्वभाव के कारण व्यवहार से लोक के अग्रभाग में विराजता है । अन्य मतवाला मानता है कि सब मिलकर एक आत्मा है और मोक्ष होने . के बाद आत्मा भिन्न नहीं रहता है; परन्तु उसकी यह मान्यता झूठी है । सब मिलकर एक आत्मा हो जाये तो अपने शुद्ध स्वभाव का स्वतन्त्र भोग नहीं रह सकता है । प्रत्येक आत्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि अनंत गुणों का पिण्ड है। प्रत्येक शरीर भिन्न-भिन्न है । इसप्रकार अनंत आत्मायें हैं, सब मिलकर एक आत्मा नहीं है। तथा जीव शुद्ध होने के पश्चात् निश्चय से तो अपने
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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