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चौदहवाँ बोल
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पर्याय कौन कर सकता है ? कोई नहीं कर सकता है । शरीर के आकार की अवस्था उसके कारण और इंद्रियों की अवस्था उनके कारण होती है। आत्मा उनको ग्रहण नहीं करता है । परज्ञेय की आकृति का आत्मा में अभाव है । अतः आत्मा कुटुम्ब का वंश रखे, ऐसा अथवा लौकिक साधनमात्र है ही नहीं । आत्मा वीतरागी पर्याय प्रगट करने में लोकोत्तर साधन है।
आत्मा कैसा है? लौकिक साधन नहीं है, परन्तु लोकोत्तर साधन है । आत्मा चैतन्य ज्ञाता- दृष्टा शुद्धस्वभावी है। वह सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की निर्मल पर्याय का (प्रजा का ) उत्पादक है; परन्तु संसार की प्रजा का उत्पादक नहीं है। इसप्रकार आत्मा वीतरागी पर्याय को जन्म देता है। ऐसी वीतरागपर्याय का साधन त्रिकाली शुद्ध आत्मा हुआ; अतः उसे लोकोत्तर साधन कहते हैं ।
इस चौदहवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है - अ = नहीं, लिंग = पुरुषादि की इन्द्रिय का आकार, ग्रहण = पकड़ना । आत्मा पुरुषादि की इंद्रिय के आकार को ग्रहण नहीं करता है, अतः आत्मा लौकिक साधनमात्र नहीं है। आचार्य भगवान कहते हैं कि तू जड़ इन्द्रियों का आश्रय छोड़ और चैतन्य ज्ञाता - दृष्टा शुद्ध चिदानन्द स्वरूप है, उसकी श्रद्धा-ज्ञान करके उसमें स्थिरता कर तो तेरे में अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्यरूप पर्याय प्रगट होगी। अत: आत्मा लोकोत्तर साधन है।
इसप्रकार आत्मा लौकिक साधनमात्र नहीं है, परन्तु लोकोत्तर साधन है; ऐसा स्वज्ञेय का ज्ञान - श्रद्धान करना वह धर्म का कारण है ।
पन्द्रहवाँ बोल
न लिंगेनामेहनाकारेण ग्रहणं लोकव्याप्तिर्यस्येति कुहुकप्रसिद्धसाधनाकारलोकव्याप्तित्वाभावस्य ।
अर्थ :- लिंग के द्वारा अर्थात् अमेहनाकार के द्वारा जिसका ग्रहण अर्थात् लोक में व्यापकत्व नहीं है, सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा पाखण्डियों