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अलिंगग्रहण प्रवचन की तो बात ही नहीं है; परन्तु द्रव्यकर्म अपने कारण से आये, उसमें द्रव्यगुण तो निमित्त नहीं; किन्तु शुद्ध उपयोग भी निमित्त नहीं है।
प्रश्न : शास्त्र में उल्लेख है – जीव वीर्य की स्फुरणा ग्रहण करे जड़ धूप।यहाँ तो कहा है कि जीव के विपरीत वीर्य की स्फुरणा से आत्मा जड़कर्म ग्रहण करता है और आप तो अस्वीकार करते हो, उसका क्या समाधान है ?
उत्तर : वहाँ जीव की विकारी पर्याय सिद्ध करनी है । जीव स्वयं विपरीत पुरुषार्थ करता है, तब जड़कर्म के साथ उसका निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। वहाँ भी जीव की विकारी पर्याय कर्म को ग्रहण करती है अथवा स्पर्श करती है अथवा खींच लाती है, ऐसा नहीं कहना है; परन्तु अशुद्ध उपादान का तथा जड़कर्म का निमित्त-नैमित्तिक संबंध बताना है। यहाँ तो शुद्ध उपयोग का कथन चलता है और शुद्ध उपयोग में मलिनता का अभाव है; अत: वह कर्म को ग्रहण नहीं करता है अथवा उसके साथ निमित्त-नैमित्तिक संबंध नहीं है। ऐसा कहा है। साधक जीव को समय-समय शुद्धोपयोग की ही मुख्यता वर्तती है।
इसप्रकार शुद्ध द्रव्य, शुद्ध गुण तथा शुद्ध उपयोग होकर सम्पूर्ण आत्मा है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धयुक्त पर्याय को अनात्मा कहा है, वह आत्मा ही नहीं है। गोम्मटसार में बहुत बार उल्लेख है कि चौथे गुणस्थान में जीव को इतनी प्रकृतियों का बंध होता है और छठे गुणस्थान में इतनी प्रकृतियों का बंध होता है। ये सब उल्लेख अशुद्ध उपादान के साथ का, जड़कर्म का निमित्त-नैमित्तिक संबंध उस-उस भूमिका में किसप्रकार है, उसे बताया है; परन्तु उस भूमिका में विद्यमान शुद्ध उपयोग को जड़कर्म के साथ बिलकुल सम्बंध नहीं है। साधकदशा में मलिनता अल्प है, परन्तु उसे गौण करके शुद्ध उपयोग को जोकि स्वभाव की ओर झुका है, मुख्य गिनकर मलिनता को अनात्मा कहा है। यह साधक की बात है। साधक जीव को समय-समय 'मैं ज्ञातादृष्टा शुद्धस्वभावी हूँ' उस ओर के झुकाव की ही मुख्यता वर्तती है और दया-दान आदि शुभाशुभ भावरूप पर्यायों को जिसमें द्रव्यकर्म निमित्त होते