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________________ ४९ ग्यारहवाँ बोल ग्यारहवाँ बोल न लिंगादुपयोगाख्यलक्षणाद्ग्रहणं पौद्गलिककर्मादान यस्येति द्रव्यकर्मासं पृथक्त्वस्य। अर्थ :- लिंग द्वारा अर्थात् उपयोगनामक लक्षण द्वारा ग्रहण अर्थात् पौद्गलिक कर्म का ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा द्रव्यकर्म से असंयुक्त (असंबद्ध) है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती हैं। उपयोग द्रव्यकर्म को ग्रहण नहीं करता है, ऐसा तू जान। उपयोग द्रव्यकर्म का ग्रहण ही नहीं करता है और द्रव्यकर्म के आने में निमित्त भी नहीं होता है, ऐसा यहाँ कहना है। शुद्धोपयोग को जड़कर्म के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी नहीं है। प्रश्न : शास्त्र में उल्लेख तो है कि कषाय से स्थिति बंध तथा अनुभाग बंध होता है और योग से प्रकृतिबंध तथा प्रदेशबंध होता है, उससे जड़कर्मों का आगमन होता है और यहाँ कहा है कि उपयोग द्रव्यकर्म में निमित्त भी नहीं है तो उसका क्या स्पष्टीकरण है ? उत्तर : भाई ! योग और कषाय रूप विकारी पर्याय को आत्मा ही नहीं कहते हैं । उपयोग में मलिनता ही नहीं है, ऐसा दसवें बोल में कहा है। जब उपयोग में मलिनता ही नहीं है तो फिर उसके निमित्त से आते हुए द्रव्यकर्म को उपयोग किसप्रकार ग्रहण करे? द्रव्यकर्म में उपयोग निमित्त भी किस प्रकार हो? अर्थात् ग्रहण भी नहीं करता है और उसीप्रकार निमित्त भी नहीं होता है। जड़कर्मों का जो अपने स्वयं के कारण से आत्मा के साथ एक क्षेत्र में आगमन होता है, उसमें मलिनता निमित्तरूप होती है; परन्तु जहाँ उपयोग में मलिनता ही नहीं है, वहाँ मलिनता तथा जड़कर्म का जो निमित्त-नैमित्तिक संबंध है, वह भी उपयोग में नहीं है । यहाँ निमित्त-नैमित्तिक संबंध उड़ा दिया है। शुद्ध उपयोग में ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध ही नहीं है। जिसप्रकार आत्मा सामान्य द्रव्य तथा गुण, जड़कर्म को ग्रहण नहीं करते, उसीप्रकार शुद्ध उपयोग भी कर्म को ग्रहण नहीं करता है। यहाँ ग्रहण करने
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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