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ग्यारहवाँ बोल हैं, उन्हें गौण करता है, उनकी मुख्यता नहीं करता है। मलिन पर्याय को एक समय भी मुख्य करे तो साधक नहीं रहता है; परन्तु मिथ्यादृष्टि हो जाता है। साधक को सदा शुद्ध ज्ञाता की ओर झुकी पर्याय की, जो स्वभाव के साथ अभेद होती है, उसकी मुख्यता होती है। उस मुख्यता की अपेक्षा से उस उपयोग को द्रव्यकर्मों का ग्रहण नहीं होता है, ऐसा कहा है। उपयोग लक्षण और आत्मा लक्ष्य, ऐसे लक्षण-लक्ष्य पर से पाँच बोल का सार
आत्मा द्रव्य है और उपयोग उसकी पर्याय है अथवा आत्मा लक्ष्य है और उपयोग उसका लक्षण है। लक्षण के बिना लक्ष्य नहीं हो सकता है और लक्ष्य के बिना लक्षण नहीं हो सकता। आत्मा पहिचानने योग्य पदार्थ लक्ष्य है और उपयोग उसका लक्षण है, जिससे आत्मा पहिचाना जा सकता है।
१. सातवें बोल में उपयोग नामक लक्षण, लक्ष्य ऐसे आत्मा का ही अवलंबन करता है; अतः उसे परपदार्थों का अवलंबन नहीं है।
२. आठवें बोल में उपयोग नामक लक्षण, लक्ष्य ऐसे आत्मा में से आता है। अतः ज्ञान परपदार्थों में से नहीं आता है।
३. नवमें बोल में उपयोग नामक लक्षण, लक्ष्य ऐसे आत्मा का ही आश्रय करता है। अतः ज्ञान पर द्वारा हरण नहीं किया जा सकता है।
४. दसवें बोल में उपयोग नामक लक्षण, लक्ष्य ऐसे आत्मा में ही एकाग्र होता है, परपदार्थों में एकाग्र नहीं होता है; अतः उसमें मलिनता नहीं है।
५. ग्यारहवें बोल में उपयोग नामक लक्षण, लक्ष्य ऐसे आत्मा को ही ग्रहण करता है; परन्तु परपदार्थ, कर्म आदि का ग्रहण नहीं करता है, अतः यह असंयुक्त है। ___ इस ग्यारहवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है -अ-नहीं, लिंग-उपयोग, ग्रहण पौद्गलिक कर्म का ग्रहण अर्थात् उपयोग को पौद्गलिक कर्म का ग्रहण नहीं होता, अतः आत्मा द्रव्यकर्म से असंयुक्त है।
इसप्रकार अपना ज्ञान-उपयोग भी ज्ञेय है । वह ज्ञेय पुद्गलकर्म को ग्रहण नहीं करता है; जिससे उपयोग लक्षणयुक्त आत्मा भी पुद्गलकर्म को ग्रहण