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अलिंगग्रहण प्रवचन
पहले ज्ञान हीन था और तत्पश्चात् वृद्धिंगत हो गया तो वह निमित्त तथा बाह्य पदार्थ थे; अत: वह बढ़ा ? अथवा वह पदार्थों का अवलंबन लेता होगा ? तो कहते हैं - नहीं, वह उपयोग परपदार्थ का अवलंबन नहीं लेता है । उसीप्रकार ज्ञान में जो ज्ञेय निमित्त होते हैं, उन ज्ञेयों का अवलंबन करके ज्ञान नहीं होता है, वह ज्ञान अपने ज्ञाता - दृष्टा स्वभाव के ही अवलंबन से होता है ।
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बोल ८. ज्ञान उपयोग की वृद्धि बाह्य में से नहीं आती है, ऐसा तू जान । जो लिंग अर्थात् उपयोग नामक लक्षण को ग्रहण नहीं करता है अर्थात् स्वयं (कहीं बाहर से) नहीं लाया जाता है, वह अलिंगग्रहण है । इसप्रकार आत्मा, जिसे कहीं से नहीं लाया जाता, ऐसे ज्ञानवाला है; ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है।
पहले ज्ञान की पर्याय में हीनता थी, तत्पश्चात् दूसरे समय ज्ञान में वृद्धि हुई, वह वृद्धि क्या बाहर से आई ? सातवें बोल में कहा था कि ज्ञान उपयोग को देव-शास्त्र-गुरु का आलंबन नहीं है तो उनके आश्रय बिना यह किस प्रकार वृद्धिंगत हुआ ?
भाई ! वह बाहर से नहीं आता है, अन्तर तत्त्व में से आता है। अब आठवें बोल में कहते हैं कि ज्ञान पर में से लाया नहीं जाता, जो ज्ञान का व्यापार ज्ञाता - दृष्टा शुद्धस्वभाव का अवलंबन छोड़कर निमित्त का लक्ष करता है, उसको ज्ञान उपयोग ही नहीं कहते हैं । जिसप्रकार इंन्द्रियों से ज्ञान करे, वह आत्मा नहीं कहलाता, उसीप्रकार जो उपयोग पर का अवलंबन ले, उसे उपयोग नहीं कहते हैं।
अज्ञानी तर्क करता है कि द्रव्य-गुण तो त्रिकाल शुद्ध एकरूप हैं, उसको अवलंबन नहीं होता, ऐसा कथन तो ठीक है; परन्तु एक के बाद एक होती हुई पर्याय में एकरूपता नहीं रहती और ज्ञान की विशेष - विशेष निर्मलता अनेकप्रकार की होती है, वह क्या ज्ञेयों के आधार से होती होगी ? मन तथा शुभराग का अवलंबन है; इसलिये, शुद्धता बढ़ी है न ? नहीं; वह निर्मलता