________________
३२
अलिंगग्रहण प्रवचन ऐसा प्रथम श्रद्धा-ज्ञान करना, वह प्रथम धार्मिक क्रिया है और तत्पश्चात् उसमें एकाग्रता करके प्रत्यक्ष केवलज्ञान प्रगट करना, वह मोक्ष की क्रिया है। सच्ची श्रद्धा के फलरूप से केवलज्ञान अकेला रहता है। ___ यहाँ तो प्रत्यक्ष ज्ञातास्वभाव की श्रद्धा करने की बात है तथा जिसप्रकार साधकदशा पूर्ण होने पर केवल निश्चय रहता है और व्यवहार का अर्थात् रांग का अभाव होता है, परन्तु केवल व्यवहार रहता हो, ऐसा कभी नहीं बनता है; उसीप्रकार केवल अनुमानज्ञान रहता हो, ऐसा कभी नहीं बनता है; परन्तु आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है, उसमें सम्पूर्ण एकाग्र होने पर सर्व प्रत्यक्ष ज्ञान प्रगट होता है और वह सदा अकेला रहता है, ऐसा बन सकता है; परन्तु परोक्षज्ञान का तो सर्वथा अभाव हो जाता है । इसप्रकार आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। इस अर्थ का भाव जो जीव स्वयं में उतारता है (स्थापित करता है), वह जीव पर्याय में प्रत्यक्ष ज्ञाता हो सकता है। प्रश्न : ऐसे भाव की प्राप्ति किसको होती है? भगवान को? ।
उत्तर : भगवान को तो प्राप्ति हो चुकी है; उनको कुछ करना शेष नहीं रहता है। जिसको प्रत्यक्षज्ञान आंशिक भी नहीं है, वह तो मिथ्यादृष्टि है। उसे यहाँ आत्मा ही नहीं गिना है। उसे तो पता ही नहीं है कि मुझ में ऐसी ऋद्धियाँ भरी पड़ी हैं; परन्तु साधकजीव विचार करता है कि मेरा आत्मा राग रहित स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञाता है। वह देह, मन, वाणी, देव-शास्त्र-गुरु तथा शुभराग आदि किसी की भी अपेक्षा नहीं रखता है, मात्र अपने आत्मा की ही अपेक्षा रखता है। उसके ज्ञान के लिये किन्ही बाह्य लिंगों की आवश्यकता नहीं है। वह मात्र प्रत्यक्षज्ञाता स्वरूप है। ऐसा श्रद्धा-ज्ञान करके धर्मदशा को प्राप्त करता है। इसप्रकार धर्मात्मा जीव, 'अलिंगग्रहण' शब्द जो कि वास्तव में वाचक है, उसमें से वाच्य-भाव इसप्रकार निकालता है।
आचार्य भगवान भी शिष्य को यही भाव कहते हैं कि हे शिष्य! तेरा आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है, ऐसा तेरा स्व ज्ञेय है; ऐसा तू जान।