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________________ सातवाँ बोल ३३ सातवाँ बोल न लिंगेनोपयोगाख्यलक्षणेन ग्रहणं ज्ञेयार्थालम्बनं यस्येति बहिरर्थालम्बनज्ञानाभावस्य । अर्थ :- जिसके लिंग द्वारा अर्थात् उपयोगनामक लक्षण द्वारा ग्रहण नहीं है अर्थात ज्ञेयपदार्थों का आलम्बन नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा के बाह्य पदार्थों का आलम्बनवाला ज्ञान नहीं है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। उपयोग को ज्ञेयपदार्थों का अवलंबन नहीं है; ऐसा तू जान । पहले पाँच बोलों में द्रव्य का (आत्मा का) नास्ति से कथन किया है । आत्मा किसी बाह्य चिन्ह से ज्ञात हो, ऐसा नहीं है; इसप्रकार नास्ति से आत्मद्रव्य का कथन किया। छठवें बोल में आत्मद्रव्य की अस्ति से बात कही थी। अब सातवें बोल में आत्मा के ज्ञानगुण की पर्याय उपयोग का कथन करते हैं। यहाँ लिंग का अर्थ उपयोग कहा है। जिसको लिंग द्वारा अर्थात् उपयोग नाम़क लक्षण द्वारा ग्रहण अर्थात् ज्ञेय पदार्थों का अवलम्बन नहीं है, वह अलिंगग्रहण है । इसप्रकार आत्मा को बाह्य पदार्थों के अवलंबनवाला ज्ञान नहीं है; ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। प्रश्न : देव-शास्त्र-गुरु आदि ज्ञेयों का अवलंबन नहीं है तो मंदिर तथा पंचकल्याणक आदि क्यों कराये ? उत्तर : धर्मात्मा जीव स्वभाव का अवलंबन लेता है और स्वभाव का बहुमान करता है। साधक जीव को अशुभ से बचने के लिये शुभराग आता है; उस समय किस प्रकार के निमित्त होते हैं, उनका ज्ञान कराया है; परन्तु इस कारण उनका ज्ञान देव, गुरु अथवा मंदिरों का अवलंबन करता है, ऐसा इसका अर्थ नहीं है। देव - शास्त्र - गुरु से ज्ञान नहीं होता है; क्योंकि वे तो परज्ञेय हैं अर्थात् धर्मात्मा जीव उनका अवलंबन ही नहीं करता है । तथा वह देव, शास्त्र, गुरु को निश्चय से वंदन ही नहीं करता है; परन्तु अपने स्वभाव की वंदना करता है। विकल्प उठता है तब देव, गुरु की ओर
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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