________________
छठवाँ बोल
आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है, ऐसे श्रद्धा- ज्ञान का फल केवलज्ञान है।
जिसप्रकार कोई जीव राग को अपना स्वरूप माने तो कभी भी रागरहित नहीं हो सकता है, परन्तु राग होने पर भी उसी समय स्वयं का त्रिकाली स्वरूप रागरहित है; ऐसा यदि श्रद्धा - ज्ञान करता है तो आंशिक वीतरागता प्रगट होती है और तत्पश्चात् स्थिरता बढ़ते-बढ़ते परिपूर्ण वीतराग दशा प्रगट होती है। इस न्याय से
परोक्ष ज्ञान आत्मा का स्वभाव हो तो परोक्षरहित कभी भी नहीं हो सकता है; क्योंकि जो वस्तु सदाकाल अपनी हो, वह कभी उससे पृथक् नहीं हो सकती है । परन्तु परोक्षज्ञान का अभाव करके संपूर्ण प्रत्यक्षज्ञान प्रगट करके अनेक जीव सर्वज्ञ हो गये हैं; अत: परोक्षज्ञान आत्मा का त्रिकाली स्वभाव नहीं है; ऐसा निर्णय होता है । अत: उपरोक्त पांच लिंग से आत्मा ज्ञात हो, ऐसा नहीं है तो आत्मा कैसा है? आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है। वर्तमान में परोक्षज्ञान होने पर भी मेरा स्वभाव प्रत्यक्ष ज्ञाता है; ऐसा श्रद्धा- ज्ञान करता है तो स्वयं में आंशिक प्रत्यक्षज्ञान प्रगट होता है और विशेष बढ़कर केवलज्ञान प्राप्त करता है।
३१
इस छठवें बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है - अ-नहीं, लिंग = मात्र परोक्ष ज्ञान से, ग्रहण = जानना । आत्मा केवल परोक्ष रहनेवाला नहीं है, वह प्रत्यक्ष ज्ञाता है ।
क्रिया का स्वरूप
प्रश्न : इतना समझने के पश्चात् प्रोषध, प्रतिक्रमण आदि की क्रिया करना तो चाहिए न ?
उत्तर : भाई ! शरीर की क्रिया तो आत्मा कभी नहीं कर सकता है । भक्ति आदि का शुभभाव पुण्यास्रव है, वह विकारी क्रिया है, विभावभाव है। जो स्वभाव से विरुद्ध भाव है, वह स्वभाव को किसप्रकार सहायता करे ? करे ही नहीं। अशुभ से बचने के लिये शुभभाव आता है; परन्तु उससे धर्म मानना अथवा उसे धर्म में सहायक मानना मिथ्या है। आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता-दृष्टा है;