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३०.
अलिंगग्रहण प्रवचन
छठवाँ बोल न लिंगात्स्वभावेन ग्रहणं यस्येति प्रत्यक्षज्ञातृत्वस्य।
अर्थ :- जिसका लिंग के द्वारा नहीं; किन्तु स्वभाव के द्वारा ग्रहण होता है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है। ऐसा तू जान। ___ आत्मा किसी बाह्य चिह्न अथवा अनुमान आदि उपरोक्त पांच लिंगों द्वारा ज्ञात नहीं होता; परन्तु स्वभाव द्वारा ज्ञात होता है। आत्मा स्वभाव द्वारा ज्ञात होता है - ऐसा कहते ही वह परोक्ष अनुमानमात्र से ज्ञात होने योग्य नहीं है; उसीप्रकार इन्द्रियों और मन के अवलम्बन से भी ज्ञात होने योग्य नहीं है। ऐसा नास्ति का कथन भी उसमें गर्भित है। यहाँ तो अस्ति से यह बोल कहा है। परोक्षता होने पर आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है; ऐसा क्यों कहा? . यहाँ तो साधकदशा की बात है। केवली को समझना शेष नहीं रहता;
क्योंकि वे तो सम्पूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञाता हो गये हैं । तब यहाँ इस बोल में ऐसा कहा है कि 'प्रत्यक्ष ज्ञाता है ऐसे भाव की प्राप्ति होती है' उसका क्या अर्थ है? प्रत्यक्ष ज्ञाता तो केवली होता है फिर भी यहाँ प्रत्यक्ष ज्ञाता कहा है; क्योंकि साधकजीव अपने आत्मा को प्रत्यक्ष ज्ञाता मानता है। साधक को परोक्षता आंशिक है, उसकी यहाँ गौणता है। प्रत्यक्ष की मुख्यता है। जो अपने आत्मा को रागरहित तथा मन के अवलम्बनरहित, प्रत्यक्ष ज्ञाता नहीं मानता है, उसको धर्म कभी भी नहीं होता है। ___ यहाँ कहा है कि आत्मा इन्द्रियों से स्व-पर को नहीं जानता है, आत्मा इन्द्रियों द्वारा ज्ञात नहीं होता है, आत्मा इन्द्रियगम्य चिह्नों से ज्ञात नहीं होता है, आत्मा केवल अनुमान ज्ञान से ज्ञात नहीं होता है और आत्मा केवल अनुमान ज्ञान से स्व-पर को नहीं जानता है । इन पांच लिंगों द्वारा आत्मा ज्ञात नहीं होता; अतः आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है, ऐसे भाव की प्राप्ति होती है।