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चैतन्य की चहल-पहल कारंण हो तो फिर सीप के दर्शन से चाँदी की भ्राँति क्यों हो जाती है ? अथवा वस्तु के न होते हुए भी केश मशकादि का ज्ञान कैसे उत्पन्न हो जाता है तथा भूत और भावी पर्यायें तो वर्तमान में विद्यमान नहीं हैं, उनका ज्ञान कैसे हो जाता है? अतः ज्ञेय से ज्ञान की सर्वाङ्गीण निरपेक्षता निर्विवाद है।
इस लोक में ज्ञान का ऐसा अद्भुत स्वभाव है और इस निरपेक्ष, निर्लिप्त निरावरण ज्ञान-स्वभाव की प्रतीति एवं अनुभूति भव-विनाशिनी है। ज्ञानी जानता है कि जिस समय जो ज्ञेय मेरे ज्ञान में प्रतिबिम्बित दीख पड़ता है वह सब ज्ञान का ही आकार है; वह सब मैं ही हूँ और वह प्रतिबिम्ब मेरा ही स्वभाव है। ज्ञान का वह आकार ज्ञेय से नितान्त रीता है। उसमें ज्ञेय का एक अविभाग प्रतिच्छेद भी प्रविष्ट नहीं है और वह आकार मेरे ज्ञान के नियत स्वकाल में मेरे ज्ञान से ही उत्पन्न हुआ है और वही उत्पन्न होने योग्य भी है। अन्य परिणाम को उस समय मेरे ज्ञान के प्रवाह में उत्पन्न होने का अवकाश एवं अधिकार नहीं है। इसमें 'यह क्यों' आया और अन्य क्यों नहीं यह प्रश्न ही नहीं रहता। ___ज्ञान में प्रतिबिम्बित ज्ञेयाकार के सम्बन्ध में जिसको 'क्यों' यह विषमभाव उत्पन्न होता है। वह वस्तुत: ज्ञान के ज्ञेयाकार ज्ञानस्वभाव और आत्मा का ही अभाव चाहता है। ज्ञान-स्वभाव की यह प्रतीति निर्भयता एवं नि:शंकता को जन्म देती है। ज्ञानी इस प्रतीति में सदा ही निश्चिंत है कि मेरी ज्ञान-परिधि में जगत् का प्रवेश ही निषिद्ध है। अत: अनेकाकार होकर भी ज्ञान निर्मल ही रहता है
और वे अनेकाकार भी ज्ञान ही के विशेष होने के कारण ज्ञान ही हैं। ज्ञान के ये विशेष किसी व्यवस्था की वस्तु नहीं, किन्तु सहज