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________________ 59 ज्ञानस्वभाव-सम्यग्ज्ञान . ही अपने नियत समय में ज्ञान सामान्य में से उत्पन्न होते रहते हैं, अत: ज्ञानी इन विशेषों का भी तिरोभाव करके त्रैकालिक ज्ञान सामान्य पर ही अपनी दृष्टि केन्द्रित करता है और निरन्तर शुद्ध ज्ञान अर्थात् शुद्धात्मा ही उसकी अनुभूति में अवतीर्ण होता है। - इसके विपरीत अज्ञानी सदा ही ज्ञेयाकारों के ज्ञान में प्रवेश की भ्राँति से उद्वेलित रहता है। उसे ऐसा लगता है कि ये इन्द्रियों के विषय मेरे भीतर ही चले आ रहे हैं। वस्तुत: तो इन्द्रिय-विषय ज्ञान में प्रतिबिम्बित मात्र होते हैं। ज्ञान के प्रतिबिम्ब को अज्ञानी साक्षात् ज्ञेय ही समझता है। अत: उसे सदा ज्ञेय मिश्रज्ञान की अशुद्ध अनुभूति ही होती है। श्री समयसार परमागम की १५वीं गाथा की टीका में आचार्य श्री अमृतचन्द्र इसका अत्यन्त मार्मिक चित्रांकन करते हैं - “अनेक प्रकार के ज्ञेय के आकारों के साथ मिश्ररूपता से उत्पन्न सामान्य के तिरोभाव और विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आनेवाला (विशेष भावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान वह अज्ञानी ज्ञेयलुब्ध जीवों के स्वाद में आता है, किन्तु अन्य ज्ञेयाकार की संयोग रहितता से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आनेवाला एकाकार अभेदरूप ज्ञान स्वाद में नहीं आता और परमार्थ से विचार किया जावे तो, जो ज्ञान विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आता है वही ज्ञान सामान्य के आविर्भाव से अनुभव में आता है। अलुब्ध ज्ञानियों को तो जैसे सेंधव की डली, अन्य द्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करके केवल सेंधव का ही अनुभव किये जाने पर सर्वतः एक क्षार रसत्व के कारण क्षाररूप से स्वाद में आती है, उसी प्रकार आत्मा भी परद्रव्य के संयोग का
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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