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________________ 48. चैतन्य की चहल-पहल अन्नरंग वीतराग चारित्र के साथ वह शुभभाव भूमि नियम से होती है तथा उस शुभभाव भूमि के प्रकट हुए बिना वीतराग चारित्र भी प्रकट नहीं होता। इसी अनुरोध से मन्द कषायरूप उस अचारित्र भाव को भी चारित्र कहने की एक पद्धति है और इसी पद्धति को व्यवहारनय कहते हैं। किन्तु वस्तुतः चारित्र तो आनन्दमय वीतराग भाव ही है और वही मोक्षमार्ग है। मन्द कषायरूप व्यवहारचारित्र चारित्र का विकार मात्र है। वह थोड़ा भी चारित्र नहीं है और सर्व ही बन्धस्वरूप है।" सम्यग्दृष्टि को जीवन में सदा ही चारित्र के प्रादुर्भाव की उग्र भावना प्रवर्तित होती है। उसे भले ही पुरुषार्थ की निर्बल गति के कारण चारित्र नहीं होता किन्तु वह कभी भी चारित्र की आनन्दमय वृत्ति के प्रति उदासीन एवं प्रमादी भी नहीं होता। अत: निश्चित ही उसे इस भव अथवा भवान्तर में चारित्र का उदय होता है। मोक्षमार्ग की क्रमिक भूमिकाओं का उल्लंघन करके जल्दबाजी करने से चारित्र नहीं आता, वरन् शुद्ध चैतन्य तत्त्व की उग्र भावना से ही जीवन में चारित्र का उदय होता है। . श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र का तो विशद विवेचन श्री कानजीस्वामी की वाणी में हुआ ही है, किन्तु साथ ही जैनदर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निश्चय-व्यवहार, निमित्त-उपादान एवं आर्हत् दर्शन का प्राण अनेकांत आदि का जो अत्यन्त प्रामाणिक, आगम-सम्मत एवं सतर्क प्रतिपादन हुआ है, वह चित्त को चकित कर देता है। सम्भवत: जैनदर्शन का आधारभूत कोई सिद्धान्त ऐसा नहीं है, जिसमें उनके ज्ञान एवं वाणी का व्यवसाय नहीं हुआ हो, अध्यात्म का ऐसा सांगोपांग विवेचन तो शताब्दियों में नहीं हुआ। बयालीस वर्ष से
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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