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सम्यग्दर्शन का विषय (द्वितीय)
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अनुष्ठानों की काली कारा में चारित्र जैसे जीवन - तत्त्व को कैद करने के सभी प्रयत्न आज उस सन्त ने विफल कर दिये हैं। उन्होंने शंखनाद फूँका "चारित्र न तो घरबार आदि बाह्य संयोगों का वियोग मात्र है और न कर्मकाण्ड की छलांगें । न कोरा नग्नत्व ही चारित्र है । न महाव्रत, समिति आदि का पराश्रित शुभाचार । उपसर्ग एवं परीषह झेलना भी चारित्र नहीं तो इन्द्रियों का दमन एवं भयंकर कायक्लेश भी नहीं, वरन् स्वरूप में अन्तर्लीन आनन्द वृत्ति ही चारित्र है । "
श्री कानजीस्वामी ने चारित्र के अनिवार्य सहचर शुभाचार का भी, जिसे व्यवहार चारित्र कहते हैं, पूरा समर्थन किया। उन्होंने कहा" शुभाचार जो मात्र मंद कषाय की ही पर्याय है उसे चारित्र मानना तो मिथ्यादर्शन है ही, किन्तु वीतराग चारित्र के अनिवार्य सहचर शुभाचार का सत्व ही स्वीकार न करना भी समान कोटि का मिथ्यादर्शन ही है।" मुनित्व की भूमिका में उग्र चारित्र के साथ रहने वाले शेष कषायांश इतने मंद हो जाते हैं कि उनकी अभिव्यक्ति २८ मूलगुणरूप शुभाचार के रूप में होती है। अतएव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि यद्यपि नग्नता मुनित्व नहीं किन्तु मुनि नग्न ही होते हैं और अन्तरंग परिग्रह के अभाव के साथ उनके तिल - तुष मात्र भी बाह्य परिग्रह नहीं होता । मुनि का स्वरूप के अनुसार नहीं बदलता वरन् उनका त्रैकालिक स्वरूप एक ही होता है ।
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उन्होंने व्यवहारचारित्र का बड़ा सुन्दर स्पष्टीकरण किया और कहा कि “व्यवहार (शुभभाव) कोई चारित्र नहीं है वरन् वह तो अचारित्र भाव में चारित्र का आरोप मात्र है, क्योंकि